Tuesday, September 20, 2016

रिवर्स कास्टिज़म


एक जातिवादि मित्र दंपत्ति थे... दंपत्ति तो अब भी हैं पर अब वो मित्र न रहे। जब तक मित्र के दुर्गुण उसके सर चढ़कर नाचने न लगे तब तक मित्रता जारी रखनी चाहिए, मेरा ऐसा मानना है। जातिवाद ने मित्रवर कानेपन को अंधेपन में बदलना शुरू किया तब मैंने मित्रता की कंपनी के शेयर खींच लिए।
खैर, एक बार जातिवादी मित्र के घर हम सपत्नीक चाय की चुस्की ले रहे थे... गप सड़ाके लग रहे थे। जातिवाद संबंधी किसी बात की कोई संभावना न थी कि अचानक जातिवादी मित्र ने आँखों से अपनी पत्नी को इशारा करते हुए कहा - अरे वो ले आओ दिखाओ जरा इन लोगों को। कुछ ही क्षणों में जातिवादी मित्र की पत्नी जी एक छोटे से मिठाई के डिब्बेनुमा पैकेट के साथ प्रकट हुईं... फिर हमारी अर्धांगिनी को दिखाते हुए बोलीं - "दीदी ये तीज के लिए खरीदे हैं" कहते हुए वस्तुओं को मेज पर बिखेर दिया गया... 3 इंच की मरियल सी कंघी, 1 वर्ग इंच का कांच का दर्पण, 1 ग्राम पीले सिंदूर की डिबिया, एक पत्ता समाप्तप्राय गोंद वाली बिंदी... ये सारे सामान कोई माई का लाल या लालिनी अपने सौंदर्य उत्थान के लिए प्रयुक्त नहीं कर सकते थे। खैर हिंदुओं में ये आम बात है... हमारी सारी कृपणता पूजा पाठ के सामान खरीदने में दिखती है। जबकि पूजा पाठ के सामान के निर्माण से कितने ही गरीबों की अर्थव्यवस्था जुडी होती है। 

पर मित्रवर का मकसद ये सब दिखाना नहीं था... एजेंडा बाद में सामने आया... आग्रह हुआ की पूजा के बाद यह सामग्री सधवा ब्राम्हणी अर्थात हमारी पत्नी ग्रहण करें... हम दंपति जो लगभग अपनी जाति भूल चुके हैं... ऐसे मौकों पर जाति स्मरण होने से असहज हो जाते हैं। हम दान ग्रहण करने वाले ब्राह्मण नहीं हैं ऐसा कहकर पत्नी जी ने पीछा छुड़ाया और कहा की मंदिर में किसी विप्र को दान करें... मित्रवर छूटते ही तपाक से विष उगलने लगे... अंदर कुलबुला रहा जातिवाद बजबजा के बाहर आ गया... बोले अरे "तुम लोगों" के ये साले पंडित बहुत बड़े चोर हैं... ये हमसे दान लेंगे और खुद इस्तेमाल करने के बजाय इसको फिर से बेच देंगे... मुझे यह तर्क अटपटा लगा... मैंने कहा भाई ये कंप्लेन मुझसे क्यों करते हो... मैं पंडितों का कोई प्रवक्ता तो हूँ नहीं... मई तो वैसे ही जातिवाद का विरोधी हूँ...मेरे सहज ज्ञान के अनुसार दान देने के बाद दान दी गयी वस्तु पर आपका वैसे भी कोई अधिकार नहीं रह जाता, अब दान ग्रहण करने वाला सामग्री का इस्तेमाल करे या स्थान विशेष में घुसेड़ ले, उससे आपको क्या करना है... फिर आप ही बताइये... तीज पूजा के लिए ये सांकेतिक सामान जो आप दान कर रहे हैं वो भला किसके काम आ सकते हैं... वो 3 इंच की कंघी सर के छोड़ो वहां के बाल नहीं संवार सकते, उस बदरंग बिंदी को लगाकर पंडिताइन बंदरिया दिखेगी... उस शीशे में तुम अपने नाक के बाल भी न देख सकते हो... ऐसे घटिया सामान दान में देकर उसके इस्तेमाल की अपेक्षा करना कौन सा न्याय है भाई।
अब मैं अगर कहूं की धोबी (इसी जाती के सर्टिफिकेट के सहारे मित्रवर आज धन्नासेठ हो चुके हैं) बड़े बेईमान होते हैं, कपडे में अगर गलती से कोई कागज़ रुपया चला जाये तो वापस मिलना नामुमकिन है... और तो और ये हमारे ब्रांडेड कपडे धोकर पहनते भी हैं और पकडे जाने पर कहते हैं उनके पास भी ऐसा ही कपडा है... झूठे कही के...
यह सब सुनकर मित्रवर तमतमा गए... नफरत को सत्य की हवा दे दो तो वह दावानल बन जाती है... चाय ख़त्म हो चली थी... हम दोनों ने विदा लिया... जातिवाद की पैठ मित्रता को खा रही थी... शनैः शनैः

उजड्ड 

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