Sunday, September 10, 2017

अली बाबा, चालीस चोर और अल - जिहाद


पूज्य आचार्य रजनीश 'ओशो' कहा करते थे कि हर कहानी झूठी है, रचनाकार द्वारा अपनी विचारधारा को प्रचारित करने का छद्म अर्थात प्रोपगंडा | जैसे ही विचारधारा का मंतव्य समाप्त, कहानी समाप्त | इसलिए प्रायः सभी कहानियां अधूरी हैं, कुछ कहती हैं, कुछ नहीं कहती है ... बात दबा ले जाती हैं | असली कहानियां सतत होती हैं ... अंतहीन |

सिंध के गाँव और मंदिर लूटकर अरबी लुटेरों का एक गिरोह एक पहाड़ी के पास आकर रुका | हर लुटेरे के साथ दो घोड़े, एक पर वह खुद बैठा था और दूसरे पर लूट के बहुमूल्य आभूषण, स्वर्ण, माणिक्य, देवी देवताओं की धातु मूर्तिया आदि लादे गए थे | सबसे आगे वाला लुटेरा जो कि संभवतः गिरोह का सरगना था, मुड़ा और बाकि लुटेरों के सम्मुख हो बोला - "अल्लाह के नेक बन्दों, इतनी दौलत अल्लाह ने मुशरिकों को इसलिए अता की थी के एक दिन अल - ईमान के हम नेक बन्दे इसे अपने नाम कर सकेँ | पर सनद रहे , अल - किताब की आयत 8:69 कहती है की काफिरों मुशरिकों से लड़कर जीते हुए असबाब पे हकूक हम सबका है, हम सब का बराबर का अख्तियार है | इसलिए आओ ये सारा माल इस जादुई दरवाज़े के पीछे रखकर हम पहले अपने साथ लूटकर लायी लौंडी और लौंडों की खिदमत कबूलें | अगली जुम्मेरात को इस दौलत का बटवारा किया जायेगा" | फिर अपनी तलवार उठाकर चीखते हुए बोला "नारा-ए -तकबीर" ... पीछे ४० घुड़सवार लुटेरों ने तामीर करते हुए - "अल्लाह हु अकबर, अल्लाह हु अकबर " | फिर सरगना पहाड़ी में बने एक दरवाजे की तरफ मुड़ा और जोर से बोला - "खुल जा सिमसिम" -- घरघराते हुए दरवाजा खुला और सभी लुटेरे अन्दर चले गए | फिर अन्दर जाकर सरगना बोला "बंद हो जा सिमसिम" | लूट का सारा माल अन्दर रखकर लुटेरे बाहर आये, दरवाजे को उसी अंदाज़ में बंद करके पास के एक गाँव में सिंध से लूट कर लायी लड़कियों , महिलाओं और बच्चो का भोग करने चले गए |


ये सारी घटना पेड़ के पीछे छुपा अली बाबा देख रहा था ... दिन भर लकड़ियाँ बटोरने वाला अलीबाबा इतनी अकूत संपत्ति देखकर पागल सा हो गया ... तभी उसे पवित्र कुरआन की ज़कात सम्बन्धी आयतें याद आने लगीं | उसने सोचा की क्यों न इस लूट के माल पे इस गरीब का भी हक हो | घर जाकर उसने ये सब अपने परिवार से बताया ... फिर इस लूट के धन को चुराने की योजना बनाई और उसपर अमल भी किया | पर ये बात लुटेरों को पता लग गयी ... लुटेरों ने अलीबाबा को मारने की योजना बनाई | पर यहाँ अलीबाबा के काम आई फारस/ईरान की लौंडी मरजीना |

मरजीना एक जोरो लड़की थी | फ़ारस (आज का इरान) में इस्लाम के आक्रमण से पहले जोरो सभ्यता फली फूली थी ... जोरो लोग भी काफिर मुशरिक थे, सूर्य के उपासक थे, बड़े आजाद ख्याल और ज्ञानी लोग | आज यदि अरबी किसी ज्ञान-विज्ञान पे अपने पूर्वजों का हक जताते हैं तो वो उनके पूर्वजों का नहीं बल्कि इन्ही जोरो और भारतीय मुशरिकों का ज्ञान - विज्ञान है |
अल - मज़हब इस्लाम के अल जिहाद के आगे जोरो लोग ५० साल भी न टिक सके, धुल में मिल गयी जोरो सभ्यता ... वहीँ से लूटकर आई लौंडियों में से एक लौंडी की तीसरी पीढ़ी थी मरजीना... बड़ी चालक थी, उम्र में अलीबाबा की बेटी जैसी पर बला की कमसिन | अलीबाबा उसपर अपनी जान छिड़कता था , हर काम उससे पूछकर ही करता था |

मरजीना ने लुटेरों से निबटने की योजना बनाई| उसने अपने जलवे दिखाकर लुटेरों को नशा दिया फिर खौलता हुआ तेल डालकर उन्हें मार दिया | अलीबाबा खुश हुआ , सारी संपत्ति उसकी हुई | साथ ही लुटेरों द्वारा लायी गयी नयी सिन्धी लौंडिया और लौंडे भी मिले ... सो अलीबाबा ने फारस की उस कनीज़ मरजीना का अपने पुत्र के साथ निकाह कर दिया ... वेश्या से भी बदतर जीवन जीने वाली मरजीना को और क्या चाहिए था ... यह सम्मान पाकर वह कृतकृत्य हुई |


इसप्रकार सिंध के काफिरों मुशरिकों से लूटा धन, अरब के शांतिप्रिय अलीबाबा के हाँथ लगा और इस काम में उसकी मदद की जोरो लड़की मरजीना ने ... अल्लाह के फज़ल से काफ़िर ही काफिरों के खिलाफ काम आ जाते हैं |


ये कहानी आज भी ख़त्म नहीं हुई ... आगे भी ख़त्म नहीं होगी ... अल - मज़हब की तासीर ही कुछ ऐसी है




हर हर महादेव

उजड्ड

Monday, April 17, 2017

वैदेही वन जा रही क्यों कष्ट पाने के लिए

वन गमन से पहले माता कैकेयी से आशीष प्राप्त करने गयी वैदेही जानकी को माता कैकेयी आग्रह पूर्वक वन जाने से रोकना चाहती हैं परन्तु जानकी अपने निश्चय पर अटल है | उनके बीच के संवाद का कुछ अंश| बाल्यकाल में दादी से बहुत सारे भजन सुने थे। .. अत्यधिक भावुक हो कर गाती थीं... जितना गाती थीं... रोती जाती थीं ... इतना भाव प्रवीण गायन। उनके एक भजन की बस एक ही पंक्ति मुझे याद है ...
"वैदेही वन जा रही क्यों कष्ट पाने के लिए" | हमारी निकम्मी पीढ़ी ने उन अमूल्य भजनों को संगृहीत करने का तनिक भी कष्ट नहीं किया ...  बस उस एक पंक्ति के सहारे कुछ और वाक्य जोड़ने का प्रयास है |



कैकेयी --

है यहाँ प्रासाद का

वैभव पड़ा तेरे लिए

वैदेही वन जा रही

क्यों कष्ट पाने के लिए || १ ||

दास दासी नगर वासी

प्रस्तुत खड़े आठों प्रहर

क्या करोगी वन में बेटी

आकाश छत, प्रस्तर का घर || २ ||

पुष्प के पर्यंक पे

सोने से जो कुम्हला गयी

नींद आयेगी उसे

कैसे भला चट्टान पर  || ३ ||


वैदेही --

कष्ट क्या सुख क्या है माता

मन के दो आयाम है

श्री राम संग संघर्ष करने 

में परम कल्याण है || ४ ||

क्या करुँगी धन का

वैभव का बड़े प्रासाद का

राम के चरणों से बढ़कर

कौन सा सुखधाम है || ५ ||

जा रही हूँ मातु किंचित

शोक दुःख मत कीजिये

नियति का अवसर मिला है

धर्म धारण के लिए || ६ ||



Tuesday, September 20, 2016

फप्रेक्


नर ने जोर से छींका, मादा ने अपने संतरे की फांको जैसे फुले, रक्ततप्त ओठों को आलस्य सहित उचारते हुए कहा - ब्लेस यु... ट्रेनिग कक्ष में समय कुछ पलों के लिए मानो ज़िदिया गया... आगे न बढ़ने की कसम खा ली टाइम भइया ने। खडूस मास्टर ने धकियाते हुए समय को ठेला और अध्यापन पुनः जारी किया... नर मादा की खुसर पुसर नियमित रही... जाते जाते दोनों ने साथ साथ मधुशाला जाने की योजना बनायीं... ये सब खड़े कानों से सुनते उजड्ड साहब की इन्द्रियां बेतहासा सिग्नल फेंकने लगीं...

आगे? आगे क्या हुआ उसके लिए उजड्ड संजय हुआ जाता है... हाँ तो मित्रों मधुशाला में स्नेह की परिणीति प्रेम में हुई, प्रेम से अगाध प्रेम, फिर कहीं रात्रि आश्रय, फिर चरम प्रेम... फिर प्रेम का स्खलन।
अगले दिन मादा और नर कक्ष में विकर्णवत बैठे... यथा संभव दूरी बनाये हुए... उजड्ड साहब मुस्कुराते हुए बोले "ई तो स्साला होना ही था" और अपनी इन्द्रियों के आइय्यरी की मन ही मन सराहना करने लगे ।

हर हर महादेव
- उजड्ड बनारसी

फेमिनिस्ट कविता


तुम मेरे धुन की न सोचो
लय मत गढ़ो...
छंद पे मत कसो
मैं अब अनगढ़ हो गयी हूँ
निरक्षर तो नहीं मगर
अनपढ़ हो गयी हूँ


नहीं गद्य नहीं कहो मुझे
गद्य पुरुषवादी सत्ता का प्रतीक सा है
बेरुखा, घमंडी, चुभने वाला, अकड़ू, बेहूदा है
गद्य अभ्यास से है,मेरा अस्तित्व आभास से है
गद्य न कहो मैं फेमिनिस्ट कविता हूं


अपना रूप लावण्य त्याग बनी स्वेच्छिक विधवा हूँ
कंधे से कन्धा मिलाना सीखा है मैंने
उस पुरुष गद्य से लड़ना सीख है मैंने
तो क्या जो मेरा छंद टूट गया
तो क्या मेरे लय का स्पन्द छूट गया..
रस को दग्ध कर अलंकार पिघला डाले
और उसके सिक्के बना डाले
आड़ी टेढ़ी पंक्तियों में ढल
बेतरतीबी से बिखरे पड़े अल्प और पूर्ण विरामों का भ्रमजाल ओढ़े साहित्य की दुहिता हूँ
मैं आज की नयी कविता हूँ



- कृते "उजड्ड"
हर हर महादेव

"जुड़" जाना संवाददाता से


कुकुर युगल का "जुड़" जाना चोरी छुपे, हँसते लजाते लगभग सभी ने देखा होगा। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से इस प्रकार से जुड़ने के लिए कुक्कुर युगल को सशरीर एक ही स्थान पर परस्पर विपरीत दिशा में उपस्थित होना होता है... मगर हमारे समाचार चैनलों ने इस तकनीक में जबरजोर तरक्की और सफलता अर्जित की है। जैसे ही किसी समाचार में तड़का लगाना होता है, ये नोयडा में बैठे बैठे मुम्बई के ठाड़े में अपने संवाददाता से "जुड़" जाते हैं..

रिमोटली "जुड़" जाने की कला विकासित कर ली है हमारे समाचार चैनलों ने... तन से तन का मिलन हो न पाये तो क्या मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं के तर्ज पे ये लोग मन ही मन "जुड़" जाते हैं।
इस क्रम में साक्षात्कार कुछ ऐसे होता है... तो आइये ले चलते हैं आपको सीधा कैशाम्बी जहाँ डॉ कुमार विश्वास हमसे "जुड़" चुके हैं... हाँ तो डॉक्टर विश्वास, बताइये हमसे "जुड़" के कैसा महसूस कर रहे हैं....

ये लोग आव देखते हैं न ताव, बस जुड़ जाते हैं। मुम्बई में बारिश हुई... "जुड़" गए, बुंदेलखंड में "सूखा" पड़ा... जुड़ गए, दिग्गी सर ने शादियां की... "जुड़" गए, थरूर साहब पाकिस्तानी मेहर तरार से "जुड़" गए...
अभी अभी ठाड़े में एक शांतिप्रिय छोटा परिवार सुखि परिवार के मात्र 13 लोगों को उनके ही घर के शांतिदूत ने जहरखुरानी से हालाक् कर दिया... ABP न्यूज़ का एंकर झट से अपने ठाड़े संवाददाता से "जुड़" गया... शाम को rNDTV पे रवीश जी भी "जुड़" जाएंगे... जुड़ो भाई, हमें क्या... अल्लाह तुम्हारी "जुड़ाई" सलामत रखें...


- उजड्ड
हर हर महादेव

बानर कॉट इन एक्ट


लगभग सभी स्तनधारियों में से मनुष्य और बन्दर ऐसे हैं जिन्हें यदि कोई रति क्रीड़ा में लिप्त देख ले तो वो बुरा मान जाते है... बन्दर तो इतने क्रोधित हो जाते हैं की काट लें... काम करेंगे खुले आम... किसी की टंकी पे, नीम के पेड़ पर, छत की मुंडेर पर... कही भी, हर उस जगह जहाँ भोले भाले मानव की दृष्टि पड़ जाए। भोले मानव ने बस भोली सी भूल की.. बानर 'कॉट इन एक्ट"... बस बानर जी की सुलग जाती है... काम धंधा छोड़ के काटने को दौड़ जाते हैं... दुनिया का कोई भी जीव रति क्रीड़ा बीच में छोड़कर किसी को काटने, हिंसा करने नहीं दौड़ता... यहाँ तक के रति-रत किशोर श्रीमान मोहनदास गांधी अपने मरते बाप को देखने भी तभी गए जब क्रीड़ा समाप्त हो गयी... परबापू (बापू के बापू) शायद इसी सदमे से मर गए हों... खैर यह फैसला ठरकाधिकारियों पे छोड़ वापस संस्मरण पर आगे बढ़ते हैं... परंतु इतना तो स्पष्ट है की तुच्छ वानर गांधी जी के बताए रस्ते पर कत्तई नहीं चलते... मरकट कही के।

लोलार्क कुण्ड के उत्तर की ओर पीपल के वृक्ष के नीचे मुन्ना गुरु दुपहरिया छहाँ रहे थे। उनकी शालीनता की ख्याति घाट से लेकर सड़क तक थी। तुलसी और अस्सी घाट के अभिशप्त उजड्डों में शालीन होना एक दुर्लभ गुण है। वो भी तब जब बाकि के गुरु लोगों की तरह आप भी वही करते थे... कुछ नहीं। अब कुछ न करते हुए खुद में शालीनता गढ़ लेना अपने आप में रेंड़ (अरंडी का पेड़) से महल बना लेने जैसा है। मजाल है की मोहल्ले के लोग मुन्ना गुरु से कोई अपशब्द बुलवा लें... कोई हल्की बात करवा ले।

हाँ तो मुन्ना गुरु गमछे का बेंड़ुआ (कपडे से बनाई हुई तकिया) सर के नीचे लगाये भांग बुटी के विचार में मग्न अधखुली आँखों से नश्वर संसार को विरक्तिभाव से अनदेखा किये लेटे हुए थे की अचानक उनकी दृष्टि रति-रत बानर पे पड़ी... बानर की आप पर पड़ी। नैन मिले और ... खो खो खुर, कट खुर खो... ध्वन्यात्मक चेतावनियों से मुन्ना गुरु चेताये गए... पर मुन्ना गुरु अर्ध समाधी में बने रहे... हिले नहीं... बानर महराज ने गांधीरोधी कार्य किया... सब कुछ छोड़ छाड़ के दौड़ पड़ा खोंकते हुए... मुन्ना गुरु संकट निकट देख उठकर भागे... प्रयास में कुण्ड की सीढ़ी उतरने में गड़बड़ा गए... गोड़ (पैर) टूट गया।

प्लास्टर चढ़ाये जब शाम को बैठक में गुरु से पूछा गया... क्यों मुन्ना...अरे गोड़वा कहाँ डाल दिए गुरु? मुन्ना गुरु के मुह से पहली बार निकला... अरे ई बन्नर भों..... मुन्ना गुरु पूरा करते इसके पहले ही हर हर महादेव गूँज गया... अब मोहल्ले में कोई अपवाद न था... स्वयं मुन्ना गुरु भी शालीन न रहे।
हर हर महादेव

- कृते
उजड्ड

रिवर्स कास्टिज़म


एक जातिवादि मित्र दंपत्ति थे... दंपत्ति तो अब भी हैं पर अब वो मित्र न रहे। जब तक मित्र के दुर्गुण उसके सर चढ़कर नाचने न लगे तब तक मित्रता जारी रखनी चाहिए, मेरा ऐसा मानना है। जातिवाद ने मित्रवर कानेपन को अंधेपन में बदलना शुरू किया तब मैंने मित्रता की कंपनी के शेयर खींच लिए।
खैर, एक बार जातिवादी मित्र के घर हम सपत्नीक चाय की चुस्की ले रहे थे... गप सड़ाके लग रहे थे। जातिवाद संबंधी किसी बात की कोई संभावना न थी कि अचानक जातिवादी मित्र ने आँखों से अपनी पत्नी को इशारा करते हुए कहा - अरे वो ले आओ दिखाओ जरा इन लोगों को। कुछ ही क्षणों में जातिवादी मित्र की पत्नी जी एक छोटे से मिठाई के डिब्बेनुमा पैकेट के साथ प्रकट हुईं... फिर हमारी अर्धांगिनी को दिखाते हुए बोलीं - "दीदी ये तीज के लिए खरीदे हैं" कहते हुए वस्तुओं को मेज पर बिखेर दिया गया... 3 इंच की मरियल सी कंघी, 1 वर्ग इंच का कांच का दर्पण, 1 ग्राम पीले सिंदूर की डिबिया, एक पत्ता समाप्तप्राय गोंद वाली बिंदी... ये सारे सामान कोई माई का लाल या लालिनी अपने सौंदर्य उत्थान के लिए प्रयुक्त नहीं कर सकते थे। खैर हिंदुओं में ये आम बात है... हमारी सारी कृपणता पूजा पाठ के सामान खरीदने में दिखती है। जबकि पूजा पाठ के सामान के निर्माण से कितने ही गरीबों की अर्थव्यवस्था जुडी होती है। 

पर मित्रवर का मकसद ये सब दिखाना नहीं था... एजेंडा बाद में सामने आया... आग्रह हुआ की पूजा के बाद यह सामग्री सधवा ब्राम्हणी अर्थात हमारी पत्नी ग्रहण करें... हम दंपति जो लगभग अपनी जाति भूल चुके हैं... ऐसे मौकों पर जाति स्मरण होने से असहज हो जाते हैं। हम दान ग्रहण करने वाले ब्राह्मण नहीं हैं ऐसा कहकर पत्नी जी ने पीछा छुड़ाया और कहा की मंदिर में किसी विप्र को दान करें... मित्रवर छूटते ही तपाक से विष उगलने लगे... अंदर कुलबुला रहा जातिवाद बजबजा के बाहर आ गया... बोले अरे "तुम लोगों" के ये साले पंडित बहुत बड़े चोर हैं... ये हमसे दान लेंगे और खुद इस्तेमाल करने के बजाय इसको फिर से बेच देंगे... मुझे यह तर्क अटपटा लगा... मैंने कहा भाई ये कंप्लेन मुझसे क्यों करते हो... मैं पंडितों का कोई प्रवक्ता तो हूँ नहीं... मई तो वैसे ही जातिवाद का विरोधी हूँ...मेरे सहज ज्ञान के अनुसार दान देने के बाद दान दी गयी वस्तु पर आपका वैसे भी कोई अधिकार नहीं रह जाता, अब दान ग्रहण करने वाला सामग्री का इस्तेमाल करे या स्थान विशेष में घुसेड़ ले, उससे आपको क्या करना है... फिर आप ही बताइये... तीज पूजा के लिए ये सांकेतिक सामान जो आप दान कर रहे हैं वो भला किसके काम आ सकते हैं... वो 3 इंच की कंघी सर के छोड़ो वहां के बाल नहीं संवार सकते, उस बदरंग बिंदी को लगाकर पंडिताइन बंदरिया दिखेगी... उस शीशे में तुम अपने नाक के बाल भी न देख सकते हो... ऐसे घटिया सामान दान में देकर उसके इस्तेमाल की अपेक्षा करना कौन सा न्याय है भाई।
अब मैं अगर कहूं की धोबी (इसी जाती के सर्टिफिकेट के सहारे मित्रवर आज धन्नासेठ हो चुके हैं) बड़े बेईमान होते हैं, कपडे में अगर गलती से कोई कागज़ रुपया चला जाये तो वापस मिलना नामुमकिन है... और तो और ये हमारे ब्रांडेड कपडे धोकर पहनते भी हैं और पकडे जाने पर कहते हैं उनके पास भी ऐसा ही कपडा है... झूठे कही के...
यह सब सुनकर मित्रवर तमतमा गए... नफरत को सत्य की हवा दे दो तो वह दावानल बन जाती है... चाय ख़त्म हो चली थी... हम दोनों ने विदा लिया... जातिवाद की पैठ मित्रता को खा रही थी... शनैः शनैः

उजड्ड