Tuesday, September 20, 2016

रामनाथ यादव


सन् 94 की बात, हम लोग ताजा ताजा कच्छा छ में घुसे थे। बंगाली टोला इस्कूल अपने आप में विख्यात अऊर कुख्यात दोनों था। विख्यात इसलिए की प्रेंस्पल साब ( जिन्हें हम मारे प्रेम के प्रेंस्पलवा बुलाते थे) श्री गणेश शंकर मिश्रा को कुछ दिन पहले राष्ट्रपति जी ने एक ठो पुरस्कार दे दिया था। जो बकौल वाइस प्रेंस्पल 'अलानाहके दे दिया' गया था। पुरे जिले में चर्चा थी। हमारे गाँव के बेचन मास्टर तक सकते में थे... एक मास्टर भी राष्ट्रपति पुरस्कार पा सकता है ये विचार सुबह शौच में भी उनके मन में कब्ज बनाये था। खैर मिश्रा जी ने ख्याति का जो रेतीला टीला बनाया था उसपर छात्र खास मेहरबान थे। जो गणित के मास्टर श्री रामनाथ यादव सर के शब्दों में विद्यालय की ख्याति में "मूत के बिलुक्का" करने जैसा था... आर एन यादव सर हमारे कक्षाध्यापक बनते बनते रह गए। दरसल दर्जा छ - अ में कुल 124 छात्र थे जो कोचिंग में खींचने की दृष्टि से अच्छी खासी संख्या थी। मगर विधि का खेल, रामनाथ सर को हमारे छ - अ की कक्षाध्यापकी तो न मिली पर गणित की क्लास मिल गयी और विधि के इस खेल की बेईमानी तो देखिये, हम मानीटर बना दिए गए। 

हमसे सीनियर भैया लोगों में एक थे अंशु भाइया। जितने मोटे थे उतनी ही मोटी मोटी गाली भी देते थे। उनके हाँथ सिर्फ दो काम के लिए थे ... पहला हैण्ड क्रिकेट खेलने के लिए और दूसरा स्थान विशेष खुजाने के लिए। बोले देखो बेटा, मना कर दो मॉनिटरी से, ई रमनाथवा गणित नहीं पढ़ता ... गां$% फाड़ता है। इतना मारेगा की या तो कोचिंग पकड़ लोगे या फिर भाग जाओगे। मानीटर को तो औरो लपेटता है।

रामनाथ सर की आवाज घर्र घर्र करती थी... जैसे कोई बेंच घसीटता हो। हर साल की तरह इस साल भी अपना इंट्रो देते हुए बोले - ये हाँथ नहीं हथौड़ा है और ये शरीर नहीं फैलाद है, पढ़ाएंगे कम और मसलेंगे ज्यादा... का समझे! (चारो तरफ दृष्टि फेंकते हुए) मानीटर कौन है रे? मैं मूत भी सकता था मगर न जाने किस जैविक वाल्व ने मेरी किडनी के द्वार पे मोर्चा संभाले रखा था। हड़बड़ा के बोला - हम हैं सर। उन्होंने आह्वान किया - इधर आओ चिमीरखीलाल। नाम बोल... देखो पांड़े, हमको हल्ला गुल्ला नहीं चाहिए। जो अनुसासन में न रहे उसको रगड़ दो। नाम वाम लिख के हमको दिखने की जरूरत नहीं ... खाली पढ़ने से नहीं होता है, देहिं में जान होना चाहिए... का समझे।

खैर जो भी हो, हम लोगों की गणित कभी कमजोर न रही। और मारपीट कर लेने की हिम्मत यादव सर ने बखूबी दी। वो मारपीट में सही गलत के पक्षधर न थे। वो बस देखते थे की लड़का कितना बहादुर है। रामनाथ सर छात्रों में पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करते थे। सरस्वती पूजा में विसर्जन यात्रा का संचालन हर वर्ष वही करते थे। विसर्जन यात्रा पांड़े हवेली से मदनपुरा, गोदौलिया होते हुए दशाश्वमेध घाट तक जाती थी। मदनपुरा मुस्लिम बहुल क्षेत्र था... ऐसे में वर्ष भर बदनाम रहने वाले रामनाथ सर और उनके चेले ही काम आते। बाकी के बंगाली अध्यापक "माट्साब आप देख लिह" कहके दाएं बांये हो जाते थे। उस दिन रंमनाथ यादव सहायक अध्यापक नहीं, विद्द्यालय के गार्जियन की हैसियत रखते थे... उनके आगे प्रिसिपल गणेश शंकर मिश्रा का राष्ट्रपति पुरस्कार फीका लगता था।

आज लगता है उनके जैसे अद्ध्यापक कितने जरूरी हैं। यादव सर जहाँ भी हों, ईश्वर उन्हें आनंद दें।

हर हर महादेव
उजड्ड

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