Tuesday, September 20, 2016

सूफी चूतियापे और ग़ज़ल



सुफियाने महकमें ने भारतीय सोच में जितना दोगलापन और धीम्मियत भरी है वो मिशनरी और अंग्रेज भी न कर पाए। अंग्रेजों ने तो हमें अपने इरादों से सतर्क कर दिया ... सूफी आज भी सोच में इस कदर घुसे हैं के फर्क करना मुश्किल है।
शांति के मज़हब की कारस्तानी पे पर्दा डालने के अलावा सुफियापा काफिर को कातिल से मोहब्बत करना सिखाता है। प्रतिरोध को कुंद करता है... ये तज़ुर्बा है मेरा... इतना है कि अब इसपे बहस कर सकता हूँ।
जीवन के 10 साल इतनी गज़ले सुन लीं के अब बिलकुल नहीं सुनता... व्यर्थ लगती हैं ग़ज़लें। अर्थ पहले भी समझता था परंतु परिपेक्ष्य अब समझ आने लगा है। जैसे ये अमीर मीनाई (जगजीत सिंह और ग़ुलाम अली दोनों ने गायी है) वाली -
वो बेदर्दी से सर काटें अमीर ...
और मैं कहूँ उनसे
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता
ज़नाब आहिस्ता आहिस्ता
यहाँ कातिल नायिका से काफिर नायक आग्रह कर रहा है की मेरे प्राण धीरे धीरे लो, वैसे ही जैसे कसाई बकरे को जिबह करता है... वही हलाल होगा... क़त्ल करने और होने वाले हम दोनों को सबब मिलेगा।
अगली कुछ रचनाये ग़ज़लों पे होंगी... बहुत सुनी हैं। टाइम टू पे बैक।


हर हर महादेव
उजड्ड

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