महान क्रांतिकारी यशपाल का एक उपन्यास है, दिव्या। जिसे भी अपने हिंदी ज्ञान पर रंच मात्र भी अभिमान हो वो इसे जरूर पढ़े। खैर, यशपाल की महिमा कभी और अभी दिव्या का एक ट्रेलर -
दिव्या, महापंडित देव शर्मा "धर्मस्थ" जो स्वयं धर्म और न्याय के मनुष्यरूप हैं, की प्रपौत्री है। महान बलशाली पृथुसेन के साथ हुए वर्ण भेद के अन्याय पर अपने पृपितामह धर्मस्थ से तर्क कर रही है। बात धर्मस्थान (न्यायपालिका) के अधिकार और धर्म (न्याय) की चल रही है। दिव्या पृथुसेन को न्याय दिलाने के लिए आग्रह कर रही है, धर्मस्थ न्याय की परिभाषा करते हैं -
"धर्मस्थान कोई स्वयंभू और स्वतंत्र वस्तु नहीं है। वह केवल समाज की भावना
और व्यवस्था की जिह्वा है। इतने समय पर्यन्त न्याय की व्यवस्था देते रहने
से मैं यही समझ पाया हूँ कि न्याय व्यवस्थापक के अधीन है, पुण्यस्मृति तात
के समय पौरव वंश और उनके सामंतगण के विचार, उनके अधिकारों और शक्ति की
रक्षा का विधान ही न्याय था। विजयी मिलिंद के समय इन सबका अधिकारच्युत हो
जाना न्याय था और महाराज मिलिंद और उनके समर्थक समंतवर्ग और उनकी स्थिति और
अधिकारों की रक्षा न्याय था। फिर मद्र्राज्य में तथागत के धर्म की भावना
ही न्याय हो गयी और यज्ञ में पशु बलि का पुण्य अपराध हो गया। मद्र के
वर्तमान कुल-गण के राज्य में कुलों की सत्ता व्यवस्था का आधार है।
वर्णाश्रम पुनः मान्यता पा रहा है...। (अतः वही न्याय है)"
(ट्रेलर समाप्त)
न्याय आज भी वैसा ही है। न्यायपालिका आज भी केवल समाज की भावना और व्यवस्था की जिह्वा है। समाज जो चाहता है न्यायपालिका कमोबेश वही करती है, थोड़ा सा उन्नीस बीस भले हो जाये। दही हांडी जब समाज ने मिलजुल के, बढ़चढ़ के मनायी तो वही व्यवस्था न्याय संगत थी... तब किसी को ऊंचाई का खतरा नहीं था... समाज में पुण्य कार्य के रूप में इसकी मान्यता थी। आज का समाज वैसा नहीं है ये कहने की जरूरत नहीं रह गयी। पिछले लगभग 100 वर्षों की वामपंथी विचारधारा की समाज में घुसपैठ स्पष्ट है। अब धर्म, संस्कृति, परंपरा आदि की रक्षा न्याय का पर्याय नहीं है। अब 120 रुपये किलो की दाल अन्याय है और उसके विरुद्ध लाम्बंद होना न्याय है। समाज को वही न्याय चाहिए, दही हांडी की ऊंचाई काम होने से न्याय में बाधा नहीं है अपितु शाहबानो पर स्वयं न्यायपालिका का मुह की खा लेना न्यापालिका को व्यवस्थापिका प्रदत्त न्याय है। क्योंकि शाहबानो का समाज अपने न्याय के लिए एक जुट खड़ा है अगर न्यायपालिका नहीं तो व्यवस्थापिका न्याय करेगी ही। कृष्ण के समाज को कृष्ण के लिए न्याय नहीं चाहिए। कृष्ण के मान अपमान में उसके समाज को कोई दिलचस्पी नहीं, उसके लिए प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं... सो दही हांडी मामले में उसको उसकी ही प्राथमिकता और वरीयता के आधार पर ही तो न्याय मिला!
हर हर महादेव
उजड्ड
(ट्रेलर समाप्त)
न्याय आज भी वैसा ही है। न्यायपालिका आज भी केवल समाज की भावना और व्यवस्था की जिह्वा है। समाज जो चाहता है न्यायपालिका कमोबेश वही करती है, थोड़ा सा उन्नीस बीस भले हो जाये। दही हांडी जब समाज ने मिलजुल के, बढ़चढ़ के मनायी तो वही व्यवस्था न्याय संगत थी... तब किसी को ऊंचाई का खतरा नहीं था... समाज में पुण्य कार्य के रूप में इसकी मान्यता थी। आज का समाज वैसा नहीं है ये कहने की जरूरत नहीं रह गयी। पिछले लगभग 100 वर्षों की वामपंथी विचारधारा की समाज में घुसपैठ स्पष्ट है। अब धर्म, संस्कृति, परंपरा आदि की रक्षा न्याय का पर्याय नहीं है। अब 120 रुपये किलो की दाल अन्याय है और उसके विरुद्ध लाम्बंद होना न्याय है। समाज को वही न्याय चाहिए, दही हांडी की ऊंचाई काम होने से न्याय में बाधा नहीं है अपितु शाहबानो पर स्वयं न्यायपालिका का मुह की खा लेना न्यापालिका को व्यवस्थापिका प्रदत्त न्याय है। क्योंकि शाहबानो का समाज अपने न्याय के लिए एक जुट खड़ा है अगर न्यायपालिका नहीं तो व्यवस्थापिका न्याय करेगी ही। कृष्ण के समाज को कृष्ण के लिए न्याय नहीं चाहिए। कृष्ण के मान अपमान में उसके समाज को कोई दिलचस्पी नहीं, उसके लिए प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं... सो दही हांडी मामले में उसको उसकी ही प्राथमिकता और वरीयता के आधार पर ही तो न्याय मिला!
हर हर महादेव
उजड्ड
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