Tuesday, September 20, 2016

फेमिनिस्ट कविता


तुम मेरे धुन की न सोचो
लय मत गढ़ो...
छंद पे मत कसो
मैं अब अनगढ़ हो गयी हूँ
निरक्षर तो नहीं मगर
अनपढ़ हो गयी हूँ


नहीं गद्य नहीं कहो मुझे
गद्य पुरुषवादी सत्ता का प्रतीक सा है
बेरुखा, घमंडी, चुभने वाला, अकड़ू, बेहूदा है
गद्य अभ्यास से है,मेरा अस्तित्व आभास से है
गद्य न कहो मैं फेमिनिस्ट कविता हूं


अपना रूप लावण्य त्याग बनी स्वेच्छिक विधवा हूँ
कंधे से कन्धा मिलाना सीखा है मैंने
उस पुरुष गद्य से लड़ना सीख है मैंने
तो क्या जो मेरा छंद टूट गया
तो क्या मेरे लय का स्पन्द छूट गया..
रस को दग्ध कर अलंकार पिघला डाले
और उसके सिक्के बना डाले
आड़ी टेढ़ी पंक्तियों में ढल
बेतरतीबी से बिखरे पड़े अल्प और पूर्ण विरामों का भ्रमजाल ओढ़े साहित्य की दुहिता हूँ
मैं आज की नयी कविता हूँ



- कृते "उजड्ड"
हर हर महादेव

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