Sunday, September 12, 2010

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं ...

चाहता तो था की आम के बगीचे हों ... दादा जी के लगाये हुए...
वही एक झोपड़ी में कुछ गुड रखा मिले ...
पुरानी साइकिल की चुरचुराहट और फिसलती हुई पगडण्डी हो।
ककड़ी की बेल पर नाचती गिलहरी
मिटटी के चूल्हे पर लकड़ी के जलने की गंध
हैण्ड पाइप की खटरपटर
और कैंची साइकिल चलाने से पैरों में लगी खरोंच भी
अरे हाँ ... कुछ और भी
नाली से बहता हुआ खेतों की ओर जाता पम्पिंग सेट का उजला पानी
पोखरी के पास बैठा गड़ेरिया ... उसकी गाय और भैसें
घास को चरने से निकलती चर्र चर्र की आवाज़...
बकरियों के दौड़ने से उठती धुल ...
दूर कहीं डीज़ल के इंजन से उठती पुक पुक की ध्वनि
और इन सब से कही ज्यादा ... कही बढ़कर ....
संतोष ... शांति ... प्राकृतिक रचनात्मकता ...

हाँ यही तो चाहता था मैं ...
बस इतना ही ... लेकिन अब नहीं पा सकता ये सब...
चाह कर भी नहीं...प्राण ले या देकर भी नहीं...
मेरा गाँव अब मेरा नहीं रहा...मेरे गांव वाले भी अब उस गांव के नहीं रहे ...
ये अलग बात है की वे शहर के भी नहीं हुए...
मजाक नहीं पर सच ये है के वे कहीं के नहीं रहे ...वही हंस कौवा ...
खैर ...वो पीढ़ी ही नहीं रही जो गांव बसती और उसे पोसती थी...
जहाँ बगीचे लगाये थे दादाओं ने...अब वहां ईंट के भट्ठे हैं...
उसके धुवें से आम के पेड़ सूख गए हैं...दादाओं की आत्मा को ठंडक पंहुचा रहे हैं शायद....
गिलहरी डरती है ...उसने एक नया रास्ता निकल लिया है जीने का...
अब वो चोरी करती है ... उल्लुओं के घर में...हाँ ... सुखा बगीचा उल्लुओं का घर ही तो बनेगा...
पम्पिंग सेट नहीं चलता... अरे खेती जो नहीं होती...सो नाली भी सुखी पड़ी है...
लोग खाते क्या हैं? अजी लोग रोज़ खाते हैं...और पीते भी हैं...ज़मीन बेचकर ...
दादाओं को बड़ा अच्छा लगता होगा...पोते कितना आनंद कर रहे हैं...
अब तो गाँव में भी गुड खरीद के आता है...
अभी भी हैं कुछ मुर्ख जो खेती करते हैं और मेरे गाँव वाले उसका मज़ा ले लिया करते है...
चोरी करके ...पकडे भी जाते है...मार भी खाते हैं...
मगर इरादे के पक्के हैं...
दादा जी कितने खुश होंगे ...पोते इरादे के पक्के जो हैं...
अब कोई गड़ेरिया नहीं है भाई...
नहीं गएँ चरते समय चर्र चर्र की आवाज़ निकलती हैं...
बकरियों को भी लगता है धुल से तकलीफ होती है...
सो सभी शहर में सड़कों पर घूम रही हैं...
मेरे गांव वाले भी ...बस घूम रहे हैं...
शहर की सड़कों पर...क्यूँ ? ये तो उन्हें भी नहीं मालूम ...
लेकिन निस्वार्थ भाव से ये कर्म कर रहे है...
दादा जी .... निस्स्वार्थ पोते ... आत्मा ...शांति....
.....किसके लिए रोकूँ ये सब ...रोक सकता हु...
मगर किसके लिए ...
कोई ककड़ी खाना ही नहीं चाहता...कोई गाय चराना ही नहीं चाहता ...
आम फलना ही नहीं चाहते ...गिलहरी नाचना ही नहीं चाहती...
चूल्हे की लकड़ी के धुवें से दम घुटता है ... पगडण्डी पे झाडिया हैं ...
क्योंकि उधर से कोई जाना ही नहीं चाहता
पर ! चाहते क्या हैं ये लोग...
गाँव से निकला था...ये सोचकर की आऊंगा जब लौट कर ...
खुशहाल कर दूंगा ...सबको निहाल कर दूंगा...
पर मतलब ही बदल गया है ...
ख़ुशी का ...गाँव का ...चूल्हे का ..पगडण्डी का... आम का ...गिलहरी का...
वख्त बदलता है लेकिन ऐसे ...इतना गन्दा ... भरोसा नहीं होता ...
अब किसके गाँव जाऊं ...किस पगडण्डी पे कैंची साइकिल चलाऊं ...
लेकिनं फिर जाऊं कहाँ...मैं बना तो इसी गाँव के लिए था...
मैं तो इसे अभी भी अपनाना चाहता हु...
यही मुझे दुत्कार देता है...
मैं तो यहाँ बगीचे लगाना चाहता हूँ ...ये भट्ठे लगा रहा है...
और उसमे मेरे हाँथ भी जला देना चाहता है...



2 comments:

Anonymous said...

Well written Neeraj... I guess this does not goes unnoticed.. Pour more....

-Amit

NEO said...

Mast hai pande !!