ये पंक्तिया पढने के बाद आपको ऐसा लग सकता है की ये बशीर बद्र की "रंजिश ही सही ...." से प्रेरित हैं ...पर यकीन जानिए यह मात्र एक संयोग है। अगर आपको लगता है की यह बद्र साहब की पंक्तियों से तूलना योग्य है तो अहो भाग्य मेरे।
ये मौसम कुछ उदास है ... के तुम चले आओ
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ
डर लगता है - बेबाक हो...
डर लगता है - एक आग हो ...
मुझमे मेरे विश्वास को भरने चले आओ ...
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ
स्वातंत्र्य से ... अधीन से ...
संदेह से ... यकीन से ...
असम्बद्ध हो, रिश्ता निभाने चले आओ।
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ
कल भोर से एक ठीस है
न ही रक्त है न ही नीर है...
विलगित ह्रदय की पीर को भरने चले आओ
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ
मेरे मन में एक विद्रोह है...
पर कंठ में अवसाद है।
रोने की इसमें बात क्या ...
ये तो कर्म का ही प्रसाद है...
सुखी हुई धमनी में फिर बहने चले आओ ...
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ
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