एक ऐसा विषय जो कभी न समझा जायेगा - प्रेम। एक कोशिश उसे समझने और समझाने की... अरे नहीं ... प्रेम को समझने - समझाने की नहीं...वह तो मेरे जैसे प्राणी के लिए असाध्य है... बल्कि यह समझाने की, कि इसे समझना ही इसे न समझना है...
प्रेम के अनेक किंतु दो रूप हैं
आरंभ हैं अनेक किन्तु अंत एक है - अपूर्ण।
प्रेम कभी पूर्ण न हुआ ... न कभी होगा।
पूर्णता है बांधती, करती सीमित इसे
दम निकल जाता है इसका मिल जाने से
प्रेम सफल वो जो टूट गया, किसी कारण वश।
सफल जिसे समझते हो, वो असफल है...
प्रेम के अनेक किंतु दो रूप हैं।
धन्य भाग उसके, न किया प्रेम किसीने जिसे
नहीं लेस भी पूर्णता का जिसके प्रेम में ...
अतृप्त सा करता सबसे वह
स्वच्छंद, अविरल प्रसंग में डूबता वह।
मन का ही खेल तो प्रेम है...
तन का अभिन्न अंग प्रेम है।
सो भागता बाधा विहीन वह पागल सा...
जोड़ता सबको एक ही धागे से।
कभी भूखे तन को प्रेम से सींचा किसी के...
थके मन को नहलाया प्रेम से किसी के...
तन और मन दोनों अनूठे - अनूप हैं...
प्रेम के अनेक किन्तु दो रूप हैं...
कुछ लोग मिल गए
उत्पन्न संदेह कर गए....
बताया तीसरा रूप प्रेम का ... आत्म प्रेम -लव फॉर सोल मेट
प्रसंगवश घडी उलटी घूम गयी ... एक प्रेम याद आया...
भूल गया था जिसे ... पटल पर छलक आया...
अरे हाँ कुछ विचित्र है उससे मेरा सम्बन्ध ...
माँ नहीं, पिता नहीं ... नहीं कोई रिश्तेदार
न ही तन का था न ही मन का प्यार।
पर जब भी करता हु कुछ तो मेरी अंतरात्मा की तरह
मेरा आत्म प्रेमी या कहूं आत्म प्रेमिका
ठोंकती पीटती मुझे
मुझको मुझसे ही नाराज़ कर
अपनी उपस्थिति कराती अहसास मुझे।
क्या मैं सचमुच भुला था उसे।
यह भी तो हो सकता है की वो मन का ही प्रेम हो...
एक अलहदा, अगर्भित मन जो मेरे नियंत्रण में नहीं
या वही आत्मा है ...
आह यह मन कितना श्वान है...
स्वयं को ही काटकर घायल कर देता है..
कैसे करू मैं विभेद आत्मा और मन में
प्रेम के अनेक किन्तु क्या तीन रूप हैं?
संदेह संदेह संदेह ...
प्रेम के शायद दो या तीन रूप हैं ...
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