मुझे ऐसा लगता है की एक लेखक के तौर पर मेरा जरा भी विकास नही हुआ। आज से ९-१० वर्ष पहले लिखी कविताये पढ़ते हुए मुझे ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। मैं अपनी भावनाओं के प्रदर्शन में या तो समय से पहले परिपक्व हो गया था या फ़िर अभी भी निरा कच्चा हूँ। खैर ये लीजिये सन् १९९९- २००० में लिखी एक और रचना झेलिये।
वो रोया है ,
आज उसने मेरा सानिद्ध्य खोया है।
आज उसने जीवन ध्येय खोया है।
और पुरस्कार में यह कलंक,
की एक निश्छल को उसने छला है।
यह कला है,
तभी तो इसका पुरस्कार मिला है।
भ्रष्ट बहुलों का आशीर्वाद और उच्च पद का प्रसाद मिला है।
गिला है,
तेरी तरक्की पर मुझे, मेरे इमान को गिला है।
इंसान को,
युगों की इंसानियत से क्या मिला है।
इस अंधभक्ति से क्या मिला है।
करके, विचारों का हरण,
इस सुकोमल काया का करके नष्टीकरण
मृत्युवत कष्ट का वरण
कब हुआ है मेघ सा लक्ष्य भेदित,
रक्षित करोणों शत्रुओं से।
और मैं विलगित... न मोहित अपने प्रियजनों से,
साथ तेरा दे सका न कोई, हे अर्जुन!
आज जो कान्हा गया है
युद्ध में रथ से उतर कर।
स्मृतिपटल पर,
विस्मरण की लेप पड़ गई है फींकी
याद सब आने लगा है,
वेदना से असह्य हो आंख में कही,
स्थान भी पाने लगा है।
ठगा है,
आज उस मोही ने तुझको भी ठगा है,
वो जो तेरा ही नही जग का सगा है।
दिया अधर्म को प्रश्रय, लूटकर न्याय का आश्रय,
मैत्री का है वो कातिल
है वो दोषी,
न्याय को अन्याय कहता है वो दोषी,
अदूरद्रष्टा आज बन बैठा त्रिलोकी।
करके सत्ता का वो दोहन
पाके सिक्कों का प्रलोभन
छोड़ वो मुझको चला है,
लेकिन...
कष्ट भी उसको मिला है।
खोया है उसने मुझको और मेरे सानिध्य को।
ले गया है स्मृति मेरी,
जो विस्मृति पर
आँख उसकी नम ही रखेगी।
और ये कहती रहेंगी...
हाय तुने क्या किया है...
आज तुने मुझको छलकर
न्याय का तख्ता पलटकर
घोर पाप तूने किया है।
आह जो मेरी लगेगी... सारी धरती ही जलेगी
न्यायियों का राज होगा...तू भी कोने में सड़ेगा
दिग् दिगंतर कथा चलेगी
देखो था वो कैसा निष्ठुर, छली।
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1 comment:
What to say.......dear u hav revealed ur internal vibrations...though it is tough for me to hav a clear perception about in what circumstances and for what purposes it was created.........but i sure i shall get that after some more serious reading......but i could say only this....Hindi Sahitya me aap Anoop hote gar hote........
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