Sunday, November 2, 2008

बचपन - सन् २००० में मैंने लिखी थी

हाय वो बचपन
माँगा करता था अभिशाप, दुआओं की तरह ।
" हे भगवान! मुझे जल्दी से बड़ा कर दो ...
मुझे भी लंबा चौडा और रोबीला बना दो"।
उफ़ कितना भोला था ...
उफ़ कितना सच्चा था ...
अरे! अभी कल ही की तो बात लगती है ...
मेरे हाँथ से जो वो गुलदान टूटा था ...
भय से रोंगटे खड़े हो गए
और नगाडे बजने लगे थे ह्रदय में ।
भइया की डांट से, आंसुओं को पलकों के बाँध भी न रोक सके।
हाय वो रोते समय हिचकियों का आना ।
टूट टूट कर गहरी साँसों का आना।
और तभी माँ का कहना ...
अरे कहना कहाँ !!
बस मुख से प्राप्त स्पष्टीकरण ...
"जाने दो लाल, दूसरा आ जाएगा "
और लगा जैसे की संकट में फंसे भक्त के तारणहार आ गए।
लिपटकर यूं रोना की वो देवी भी रो दे।
और फ़िर वो रोने के बाद का हल्कापन...
जैसे की कुछ हुआ ही नही।
आज की खुशियों में भी वो रोने जैसा सुख कहाँ।
आज के हसने में भी वो पहले वाला हर्ष कहाँ ।

जी करता है की आज फ़िर कोई गुलदान टूटे मुझसे
फ़िर वही घबराहट और भइया की डाट मिले।
वैसे ही बेबाक आंसूं आयें आँखों में...
वैसे ही भय से कांपू ह्रदय में।
और फ़िर वही माँ का आश्वाशन भरा मुख
हो मेरे सामने...
फ़िर लिपटकर उस देवी से इतना रोऊँ ...
की समाप्त हो जाए इतने दिनों का अकाल।

मांगी बचपन में दुआ बड़े होने की हे प्रभु।
और की पुरी तुने...
मांगता हूँ फ़िर बचपन
दे दो हे प्रभु...

मैं फ़िर से वो छुपने वाले, वो छुने वाले ,
वो कंचे, वो गिल्ली-डंडे खेलना चाहता हूँ।
फ़िर से उन्ही टूटी गलियों और पगडंडियों
पर नंगे पांव दौड़ना चाहता हूँ।
फ़िर से गिरकर चोट खाना चाहता हूँ।
जिसे देखकर ... बरबस माँ रो पड़ती हैं।
और मैं माँ को वही पुराना आश्वासन देना चाहता हूँ...
की माँ !
" ये तो कुछ भी नही, -और चोट पर मिटटी रगड़ते हुए - बस अभी ठीक हो जाएगा "
और इतना कहकर ख़ुद को बहुत बहादुर आंकू ।
हे प्रभु मैं फ़िर से वही बहादुरी करना चाहता हूँ।
मैं रोना चाहता हूँ।
मैं मुस्कुराना चाहता हूँ।
मैं बचपन में जाना चाहता हूँ।
मैं बचपन में जाना चाहता हूँ।

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