लेंड़ का प्लवन
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प्रेमचन्द जी ने जैसा दिखाया, वैसा गाँव मैंने कभी और कहीं नहीं देखा | प्रेमचंद जी स्वयं बड़े सुलझे हुए और निष्कपट व्यक्ति रहे होंगे तभी ऐसा लिख पाए| वरना जो असल गांव होता है वो श्रीलाल शुक्ला जी से बेहतर कौन बता सकता है| ऐसा ही हमारा गाँव है | शिवपाल गंज के गंजहों से दू बित्ता ढेर लहगर* हैं हमारे गांव वाले|
पूरे देश का तो नहीं कह सकता लेकिन पूर्वांचल के गावों के ९५ प्रतिशत से ज्यादा लड़कों के बाल्यकाल और किशोरावस्था का ८० % से ज्यादा समय सिर्फ इस फेर* में बीतता है की कैसे लहगरपन के पिछले रिकार्ड नेस्तनाबूत किये जाये| अगर पिछली पीढ़ी के पुनवासी ने अपने चच्चा की भैस बेच के नाच और सिनेमा में उड़ाया तो इस पीढ़ी के अलगू उसी भैंस को वापस चच्चा को बेच के डूअल सिम वाला मोबाइल खरीदने का माद्दा रखते हैं|
हाँ तो गावों में बाहर खुले में शौच के भी कुछ अलिखित कानून होते हैं| सभी से आशा की जाती है की इन नियमों का पालन हो| इनमे से एक नियम है तालाब में या उसके आसपास शौच करने से आप कोढ़ी हो जायेंगे| पगडंडी पे हगने से बवासीर होता है इत्यादि इत्यादि| दंड की परिकल्पना हर गांव में अलग अलग है|
हमारे ग्रामीण किशोरों का पहला और सबसे सॉफ्ट टारगेट यही शौच के नियम हैं| जिन्हें तोड़कर ये अपना करेजा पोढ़* करते हैं| लहगर लीग में प्रवेश के लिए यह न्यूनतम योग्यता है|
हमारे यहाँ डड़कटुवा* खेती होती है| अर्थात खेत के मध्य की जमीन का उपयोग स्पष्ट तौर पर प्रत्यक्ष बेवकूफी है और सारा ध्यान इस बात पे केन्द्रित किया जाता है की कैसे पड़ोसी के खेत से लगी डांड़* का अधिकतम हिस्सा काटकर अपने खेत में मिला लिया जाये... खेती के सारी बरक्कत इसी बात में निहित है|
डड़कटुवा खेती की प्रधानता की वजह से हमारे खेतों के डांड़ बड़ी स्लिम होती है| अक्सर यही डांड़ आने जाने का रास्ता भी होती है| डांड़ one leg हाईवे होती है| इसपर एक बार में दोनों पैर सामानांतर नहीं रखे जा सकते| ग्रामीण यातायात के लिए ये डांड़ शहरों के रिंग रोड से कम महत्व की नहीं हैं| बस यही है हमारे लिप्पुर, धुन्नू, नरेस, निपोरे, चिथरू, पनारू आदि का अभीष्ट लक्ष्य| ये इसी मेंड़ पे, किसी अलसाई सुबह, मारे आलसन अपना पेट साफ़ कर आते हैं|
आम तौर पे ग्रामीण डांड़ पे अचानक से उग आने वाले इन भूरे - पीले द्वीपों से सतर्क हो कर चलते हैं| कही दिख जाये है तो मुह से गालीनुमा नारा, जो की हगने वाले अमुक की माता के संबोधन में होता है, लगाकर कर लांघ जाते है और फिर एक-आध पाव खखार थूक के मन स्वच्छ करने की औपचारिकता भी कर लेते है| लेकिन अक्सर बूढ़े, ग्रामीण दर्शन पे आये मूर्ख शहरी और मासूम बच्चे इस जालसाजी का शिकार हो जाते हैं| इस घटना को "गुह बुड़ना" कहते हैं|
गुह बुड़ जाने वाले की चेष्टाएँ भी बड़ी मार्मिक होती हैं| गले तक घृणा भरकर अपने पवित्र मन से जी भर के हगने वाले को अभिशाप देने के उपरांत वह मेड पे उगी घांस में अपना गोड़* घसीट घसीट के पोछता है| जिससे की उस छोटे से भूरे - पीले टापू के भाग्नावशेष एक दो मीटर की परिधि में फ़ैल जाते हैं| पूर्वांचल में शायद ही कोई ऐसा गामीण हो जो इस प्रक्रिया का विक्टिम और कलप्रिट न रहा हो| मैं भी हुआ हूँ| पर ऐसे अभागे बड़े विरले ही मिलेंगे जो अपने ही गुह में बुड़ जाते हों|
सुना है शरद जादो अपना ही गुह बुड़ गए हैं| बहुत गरियाये जा रहे हैं| और अब पोछने के चक्कर में गाँधी से लेकर गुलज़ार को "पीलापन" पोते जा रहे हैं|
जादो जी एक बात सुनिए ... हमलोगों को गुलज़ार वुल्जार में इंटरेस्ट नहीं है| हमको तो आज तक नहीं समझ में आया की "दिल खाली-खाली बरतन" कैसे हो सकता है| और हमें ऐसा कहने वाले से कोई शिकायत भी नहीं| आप ना! इस नकली राष्ट्रपिता को लपेटो| खूब पोतो| जो पूण्य बड़े बड़े सच बोलने वाले न कर सके वो आप करो| दिखा दो दुनियां को इस बुढऊ की काली करतूतें| बता दो महिलाओं के बारे में इनके घृणित प्रयोग और कृत्य | डरो नहीं ... भाजपय्यों को हम लोग देख लेंगे| आप इनकी धोती तार तार कर दो| शायद इसी निमित्त आपका प्रादुर्भाव हुआ है| महात्मा ने जो लेंड़ पानी में हगी थी अब वो उतराने लगी है| प्लवन के सिन्द्धान्तानुसार... आर्किमिडीज की कसम||
जय समाजवाद
-- उजड्ड
शब्दार्थ -
लहगर = मनबढ़े, frank|
फेर = चक्कर, मनन - चिंतन
पोढ़ = प्रौढ़, मज़बूत
डांड़ = मेंड़ या बाड़ जो की दो खेतों को, या सिंचाई का पानी ले चने वाली खुली नाली को चिन्हित करती हो |
गुह = गू| मानव अपशिष्ट
गोड़ = चरण, पैर|
डड़कटुवा = अपने खेत का क्षेत्रफल बढ़ने के लिए मेड़ को तराश करके पतला करने की युक्ति|
प्लवन = उतराकर सतह में तैरना|
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प्रेमचन्द जी ने जैसा दिखाया, वैसा गाँव मैंने कभी और कहीं नहीं देखा | प्रेमचंद जी स्वयं बड़े सुलझे हुए और निष्कपट व्यक्ति रहे होंगे तभी ऐसा लिख पाए| वरना जो असल गांव होता है वो श्रीलाल शुक्ला जी से बेहतर कौन बता सकता है| ऐसा ही हमारा गाँव है | शिवपाल गंज के गंजहों से दू बित्ता ढेर लहगर* हैं हमारे गांव वाले|
पूरे देश का तो नहीं कह सकता लेकिन पूर्वांचल के गावों के ९५ प्रतिशत से ज्यादा लड़कों के बाल्यकाल और किशोरावस्था का ८० % से ज्यादा समय सिर्फ इस फेर* में बीतता है की कैसे लहगरपन के पिछले रिकार्ड नेस्तनाबूत किये जाये| अगर पिछली पीढ़ी के पुनवासी ने अपने चच्चा की भैस बेच के नाच और सिनेमा में उड़ाया तो इस पीढ़ी के अलगू उसी भैंस को वापस चच्चा को बेच के डूअल सिम वाला मोबाइल खरीदने का माद्दा रखते हैं|
हाँ तो गावों में बाहर खुले में शौच के भी कुछ अलिखित कानून होते हैं| सभी से आशा की जाती है की इन नियमों का पालन हो| इनमे से एक नियम है तालाब में या उसके आसपास शौच करने से आप कोढ़ी हो जायेंगे| पगडंडी पे हगने से बवासीर होता है इत्यादि इत्यादि| दंड की परिकल्पना हर गांव में अलग अलग है|
हमारे ग्रामीण किशोरों का पहला और सबसे सॉफ्ट टारगेट यही शौच के नियम हैं| जिन्हें तोड़कर ये अपना करेजा पोढ़* करते हैं| लहगर लीग में प्रवेश के लिए यह न्यूनतम योग्यता है|
हमारे यहाँ डड़कटुवा* खेती होती है| अर्थात खेत के मध्य की जमीन का उपयोग स्पष्ट तौर पर प्रत्यक्ष बेवकूफी है और सारा ध्यान इस बात पे केन्द्रित किया जाता है की कैसे पड़ोसी के खेत से लगी डांड़* का अधिकतम हिस्सा काटकर अपने खेत में मिला लिया जाये... खेती के सारी बरक्कत इसी बात में निहित है|
डड़कटुवा खेती की प्रधानता की वजह से हमारे खेतों के डांड़ बड़ी स्लिम होती है| अक्सर यही डांड़ आने जाने का रास्ता भी होती है| डांड़ one leg हाईवे होती है| इसपर एक बार में दोनों पैर सामानांतर नहीं रखे जा सकते| ग्रामीण यातायात के लिए ये डांड़ शहरों के रिंग रोड से कम महत्व की नहीं हैं| बस यही है हमारे लिप्पुर, धुन्नू, नरेस, निपोरे, चिथरू, पनारू आदि का अभीष्ट लक्ष्य| ये इसी मेंड़ पे, किसी अलसाई सुबह, मारे आलसन अपना पेट साफ़ कर आते हैं|
आम तौर पे ग्रामीण डांड़ पे अचानक से उग आने वाले इन भूरे - पीले द्वीपों से सतर्क हो कर चलते हैं| कही दिख जाये है तो मुह से गालीनुमा नारा, जो की हगने वाले अमुक की माता के संबोधन में होता है, लगाकर कर लांघ जाते है और फिर एक-आध पाव खखार थूक के मन स्वच्छ करने की औपचारिकता भी कर लेते है| लेकिन अक्सर बूढ़े, ग्रामीण दर्शन पे आये मूर्ख शहरी और मासूम बच्चे इस जालसाजी का शिकार हो जाते हैं| इस घटना को "गुह बुड़ना" कहते हैं|
गुह बुड़ जाने वाले की चेष्टाएँ भी बड़ी मार्मिक होती हैं| गले तक घृणा भरकर अपने पवित्र मन से जी भर के हगने वाले को अभिशाप देने के उपरांत वह मेड पे उगी घांस में अपना गोड़* घसीट घसीट के पोछता है| जिससे की उस छोटे से भूरे - पीले टापू के भाग्नावशेष एक दो मीटर की परिधि में फ़ैल जाते हैं| पूर्वांचल में शायद ही कोई ऐसा गामीण हो जो इस प्रक्रिया का विक्टिम और कलप्रिट न रहा हो| मैं भी हुआ हूँ| पर ऐसे अभागे बड़े विरले ही मिलेंगे जो अपने ही गुह में बुड़ जाते हों|
सुना है शरद जादो अपना ही गुह बुड़ गए हैं| बहुत गरियाये जा रहे हैं| और अब पोछने के चक्कर में गाँधी से लेकर गुलज़ार को "पीलापन" पोते जा रहे हैं|
जादो जी एक बात सुनिए ... हमलोगों को गुलज़ार वुल्जार में इंटरेस्ट नहीं है| हमको तो आज तक नहीं समझ में आया की "दिल खाली-खाली बरतन" कैसे हो सकता है| और हमें ऐसा कहने वाले से कोई शिकायत भी नहीं| आप ना! इस नकली राष्ट्रपिता को लपेटो| खूब पोतो| जो पूण्य बड़े बड़े सच बोलने वाले न कर सके वो आप करो| दिखा दो दुनियां को इस बुढऊ की काली करतूतें| बता दो महिलाओं के बारे में इनके घृणित प्रयोग और कृत्य | डरो नहीं ... भाजपय्यों को हम लोग देख लेंगे| आप इनकी धोती तार तार कर दो| शायद इसी निमित्त आपका प्रादुर्भाव हुआ है| महात्मा ने जो लेंड़ पानी में हगी थी अब वो उतराने लगी है| प्लवन के सिन्द्धान्तानुसार... आर्किमिडीज की कसम||
जय समाजवाद
-- उजड्ड
शब्दार्थ -
लहगर = मनबढ़े, frank|
फेर = चक्कर, मनन - चिंतन
पोढ़ = प्रौढ़, मज़बूत
डांड़ = मेंड़ या बाड़ जो की दो खेतों को, या सिंचाई का पानी ले चने वाली खुली नाली को चिन्हित करती हो |
गुह = गू| मानव अपशिष्ट
गोड़ = चरण, पैर|
डड़कटुवा = अपने खेत का क्षेत्रफल बढ़ने के लिए मेड़ को तराश करके पतला करने की युक्ति|
प्लवन = उतराकर सतह में तैरना|
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