Sunday, August 17, 2014

दिव्य निपटान (घिन्नाना मना है)

कुछ चीजें समय के साथ साथ बदल जानी चाहिए ... जैसे की खुले में शौच जाने की परंपरा| परन्तु जो लोग बिना सोचे समझे इस परंपरा का विरोध करते हैं वो अनपढ़ लम्पट है | खुले आसमान में, ठंडी पुरवाई में निपटने का अलौकिक सुख जिसे नसीब न हुवा हो वो इसे डर्टी या unhygienic ही कहेगा ... वो बंसी को लकड़ी ही समझेगा| बदलते हुए परिवेश में खुले में शौच प्रासंगिक भले न हो मगर खुले में निपटने का अपना ही विज्ञान है |

निपटान का आपके व्यहार से बड़ा गहरा सम्बन्ध है ... मैंने देखा है, कब्जियों की न उनकी बीवी-बच्चों से बनती है न ही बॉस से| हमेशा घुन्नाये रहते हैं | यदि आप किसी निहायत ही अंतर्मुखी व्यक्ति से मिले तो इस बात की ९५ प्रतिशत संभावना है की भाई का पेट साफ़ नहीं हो रहा| उससे हमदर्दी रखे ... धीरे धीरे जब आप उसके जख्मों पर हाँथ रखेंगे तो जख्म के नीचे, उसके मर्म में फंसी, एक अदद अटकी हुई लेंड़ (या लेंड़ीयां) ही मिलेगी|

हाँ, तो बात दिव्य निपटान की हो रही है ... खैर, दिव्य निपटान के कई घटक है, जैसे भंग, पर्याप्त मात्रा में नींद, पर्याप्त मात्रा में पेय जल ताकि लेंड़ तर रहे आदि परन्तु खुलेपन और पोखरे (तालाब) या पौदरी* या गड़ही का वैसा ही महत्व है जैसे की "केक के ऊपर आइस" का (ये icing on cake का जिसने भी अविष्कार किया उसे मेरी तरफ से १००० लानतें)|

देखिये मित्रों बहुत सी चीजो का टेस्ट डेवलप करना होता है ... उसका आनंद पहली बार में नहीं आता| वैसे ही खुले में निपटान है| हमारे पडोसी का बिटवा जब हमारे साथ गांव गया तो पठ्ठा 3 दिन तक आहार को डेड एंड वाली रोड पे धकेलता रहा| माल अन्दर तो जाता था पर मारे शर्म के बाहर न निकलता था|

ऐसी ही स्थिति गाँव से शहर आने वाले मेहमानों की होती थी  हमारे गाँव में एक सज्जन हैं, सुरजन पांडे| आप जितना सोचते हैं उसका दोगुना वो खा सकते हैं और तीन गुना हग सकते है| बड़े ही मितव्ययी हैं ... निपटने भी बस अपने ही खेत में जाते है| अरे! उनके द्वारा प्रचुर मात्रा में निर्मित और उत्सर्जित जैविक खाद का लाभ अन्य कोई क्यूँ ले? हाँ तो माननीय अपनी जानकारी में आयी किसी भी विवाह, तेरही, मुंडन प्रयोजन को मिस नहीं करते| कभी कभी शहर की ओर से भी नेवता आ जाता है| खाने के स्टाल पे जब कभी आपको बर्तन खाली दिखे तो समझ लेना की माननीय अभी अभी वहां से गुज़ारे होंगे| मगर जब जनवासे लौटते तो खलबली मच जाती है| ना जाने सुर्जनवा सुबह क्या करेगा ... कहाँ करेगा ... कितना करेगा ... कब तक करेगा | मगर माननीय का अपना सिद्धांत है ... निपटान दिव्य ही होना चाहिए | रात ही में माननीय कमोड की तरफ हेय दृष्टि से देखते हुए ऐलान कर दिया - "ई चुल्ही में हम न हग्गब" | जब बाराती सुबह उठे तो जनवासे में कोहराम मच गया ... किसी ने कमोड के बाहर, समतल धरातल पर कृत्य कर दिया था ... परिमाण को देखते हुए सभी ने लगभग एक ही को अपराधी ठहराया ... सुरजन | मगर माननीय तब तक, इस कोर्ट कचहरी के प्रति उदासीन, सायकिल उठाकर गंतव्य की ओर प्रस्थान् कर चुके होते थे| खाने और निपटने के बाद बारात में रुकने का क्या प्रयोजन?

सुरजन गुरु ने दिव्य निपटान से मिलने वाले लाभ को प्रमेयबद्ध किया है| कुछ लाभ इस प्रकार हैं|

१) घर में निपटने से पूरा घर बस्साता है|
२) पानी की बरबादी होती है|
३) निपटने से पहले टहलान जरूरी है जिससे की सारी की सारी लेंड़ीयां पंक्ति बद्ध हो तैयार हो जाएँ, घर में निपटोगे तो किसके कपार पे टहलोगे?
४) सुबह सुबह की ताज़ी हवा नहीं मिलती|
५) कभी गईया, भंईस, सुग्गा, चिरई, बानर, सियार, कुक्कुर बिलार को कब्ज से लड़ते देखा है? उ साले कौन सा घर में निपटते है?
६) बेमारी? भैया गन्दगी से रहने वाले चाहे वाइट हॉउस में हगें... बीमारी उनको वहां भी होगी|

तभी गुरु को रीयलाइज़ हुआ ...लेकिन यार मेहरारुन लड्किन के बड़ा तकलीफ होला| इ आज कल के जुग में सारे लड़का होंय चाहे बुढ़वा, सारे सबहने जियब दूभर कईले हउवन| अब मेहरारू बहरे* न जांय? ए सौं बनवावे के होई एक ठे शौचालय|


- उजड्ड बनारसी

* पौदरी = पुराने समय में पुरवट या रेहट से पानी निकालने के बाद पास ही एक गड्ढे में इकठ्ठा करते थे| इसे वाराणसी और आसपास के क्षेत्रों में पौदर या पौदरी (यदि आकार में छोटी है तो) कहते हैं|

* बहरे = जैसे पुरुष निपटान के लिए जाते हैं ... वैसे ही महिलाये बहरे जाती है|


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