Monday, January 13, 2014

प्रपंच कथा ४



सुबह के ४ बजे, दरवाजे पे खटपट हुई , बब्बा (दादा जी ) ने दरवाजा खोला , बड़की फुआ और सखा सम बंधू और बहन (रजनवा और नीलमी ) का प्रवेश हुआ | सारी नींद छू मंतर हो गयी | फुआ के हाँथ की डोलची देखकर समझते देर न लगी की आज मकर संक्रांति है और कड़ाके की ठण्ड को धता बताते हुए मेरी फुआ हर साल की तरह गंगा स्नान करने के लिए आई हैं |

भैया और मैंने मिलकर अलाव जलाया | हलकी नींद के बीच में बब्बा फुआ और पापाजी की बातचीत से ठण्ड, गाँव की फसलों और रास्ते में संक्राति स्नान के लिए आने वाले की भीड़ का ज्ञान हुआ | दरवाजे के पीछे से माँ ने बुलाकर चाय का ट्रे पकडाया | सिर्फ 3 कप देखकर मैंने जिज्ञासा से पूछा की चाय कम क्यूँ है | माँ ने कहा फुआ और बब्बा नहाने के बाद ही कुछ खायेंगे-पियेंगे |

सीढियां उतारते समय जोश और आनंद असीम और अपरिमित हो रहा था | ठंडी सीढियां नंगे पैरों जितना चोट पहुचातीं , हृदयगति उतने ही तीव्रता से रक्त संचार करके आनंद में उसका गुणा कर देती | जैसे जैसे सीढियां कम होती , गंगा मैया का विशाल विस्तृत आँचल को देख मन दुलराने लगता था | बाल उत्साह से चाल वक्र होने लगती थी |

तीर पर पहुंचकर , बाल मन डर जाता | ठण्ड से हड्डियाँ खड़खड़ा रही थीं या दांत कटकटा रहे थे इस विषय में भ्रांतिमान था | मगर वो तो देखो , जहां बड़े बड़े सूरमाओं की ठण्ड के मरे घिग्घी बंधी हुई है वहीँ फुआ ने गंगा मैया में छलांग लगा दी और एक कुशल तैराक की तरह 15-२० मीटर आगे लगभग १० मीटर गहरे पानी में गोता लगाने लगीं | अचानक ठण्ड के आगे जोश ने दम भर दिया | हम सभी बाल सखा कूद पड़े पानी में | भगवान कसम कह रहा हूँ भैया, सांस मनो रुक गयी | ना ली जा रही थी नहीं निकल रही थी | फेफड़े जम गए थे | उलटे पाँव भागे पानी से बाहर | मगर ये क्या , बहार आते ही ठण्ड ख़तम हो गयी | बल्कि हल्का गरम लगने लगा | यही पर पहली बार हमारे बाल चेतन मन का साबका तापान्तर के सिद्धांत से हुआ जिसे बाद में चलकर जाना | हम लोग फिर से कूद पड़े पानी में | इसबार सांस सुदृढ़ थी |

बहार निकल कर सरसों का तेल लगाकर बदन को स्फूर्त किया | वस्त्र विन्यास के बाद पंडा जी के कंघे से केश विन्यास किया | तिलक कराया |फुआ ने संकलप (संकल्प) छुड़ाया | बचपन में मुझे सदैव इस बात से निराशा होती थी की पंडा जी के पास प्रसाद क्यूँ नहीं मिलता था | मेरा लालची मन हमेशा यही सोचता था की पंडा जी के झोले में मिठायी की पिटरिया होती होगी |

घर लौट कर गरमा गरम चूड़ा मटर और गाजर का हलवा खाने के बाद चढ़ गए छत पर पतंग, मांझा , परेती , ढूंढा , पट्टी और उबला हुआ चावल (फटी हुई पतंग को चिपकाने का कालजयी अधेसिव) लेकर और शुरू हो गयी "भाक - काटे , बड़ी नख से "|

एक छत से टुन्ना गुरु, एक से राजू भैया , एक तरफ नाटे - भाटे ब्रदर्स तो एक तरफ बबुआ चोट्टा | टुन्ना गुरु के चिरपरिचि प्रतिद्वंदी हांड़ी गुरु ने  "हर हर महादेव" के जयघोष के साथ ताल ठोक दी है ... अरे वो देख बड़ी नख से मंझारा आ रही है ... जिया रजा ... परा ने पटा को कटा , अरे ढील ढील ढील , अरे खीच खींच , कन्नी मार दे सारे के , इ सरवा दू दोहर्रा करके लड़ा रहा है...  समझ में नहीं आता था की उड़ायें की कटी हुई को पकड़ें |

ये सब लिखते हुए एक मन अटका है पतंग पर, बड़की फुआ सखा, बांधवों, गंगा जी , घाट , पतंग, भाक-काटे पर और दूसरी तरफ मन बोझिल हो रहा है ये सोचकर की ऑफिस जाना है |

हर हर महादेव, हर हर गंगे
-- उजड्ड बनारसी

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