Monday, October 13, 2008

'सार्थकता' - गंगा प्रदूषण पर एक रचना जो मैंने सन्न १९९९ में लिखी थी

सलिल गंगा के तट पर मैं खड़ा

एक बोर्ड पढता हूँ

" कृपया मुझमे नही थूकें

मैं गंगा का पवित जल हूँ।

जानने निर्देश की सार्थकता

घूमा कुछ देर मैं तट पर।

क्षितिज पार की चंचल किरने

गिरती थी गंगा जल पर।

कुछ देखे मैंने अपने जैसे

और वहा घुमक्कड़

और कुछ ऐसे भी जो

खेल रहे थे चौपड़

कुछ विदेशी पर्यतक घिर गए

थे छोटे बच्चों से।

पैसों के लिए ये नन्हे मुन्ने

भावःप्रदर्शन करते अच्छे से।

विकसित किशोरों का एक झुंड

गुजरा सहसा तट निकट से।

बहते हुए एक गौ के शव पर

थूका भर दृष्टि घृणा से ।

घृणा भरी इस घूँट को

किया फिर गंग ने आत्मसात

हुआ कुछ गहरा सा, पीछे टंगे

उस बोर्ड पर अघात.

3 comments:

Anonymous said...

Too good
A gud attempt
u r really good at hindi
itbni shudh
Wow

Ashwani said...

The poem is too good and very close to the Hindu heart. I appreciate this becuase we should respect each and every thing that defines our identity on this earth. And holy river of Ganga is one of those.

Anonymous said...

man ... I must admit I am not good at Hindi, but I managed to understand the gist!