अभी पौ फटी भी नहीं होगी की टीन के दरवाजे से जुड़ी साकल आवर्त गति में टीन पे घर्षण करने लगी, मानो किसी ने उसके सिरे को रातभर के बंधन से मुक्त छोड़ दिया हो... "लगता है सुबह हो गयी", सीढ़ी के नीचे बने त्रिभुजाकर कमरे में सो रही दुल्लर हड़बड़ा के जाग गयी। सानिध्य में चिपककर सोया कबीर भी उठ खड़ा हुआ। लगभग एक बरस का होने को हुआ मगर अभी भी माँ को छाती से चिपक कर ही सोना है साहबजादे को। अभी दुल्लर ने अंगड़ाई ली भी नहीं थे की कबीर मियां ने उसके ऊपर ही अपना पेट साफ कर दिया... झुंझलाकर दुल्लर कबीर को मारने उठी ही थी की झूलते हुए कानों में "मुबारक हो मुबारक हो" की आवाज़ गयी... कुछ सुनी हुई आवाज है ये तो... "अरे हाँ पिछली बार जब ये आवाज सुनी थी उसी दिन से दानिश गायब है... नहीं नहीं..."। उसने कबीर को अंक में भर लिया। दुल्लर की दृष्टि सामने गंधा रहे दुलदुल शेख पे पड़ी। शेख जी भी घबराहट में थे... दुल्लर ने सुना था कि दुलदुल शेख के परदादा अरब देश से आये थे, शेख जी पिछले पंद्रह कुछ दिनों से आये हुए थे। बड़ी खातिर होती थी उनकी। मगर उनकी गंध से दुल्लर खिसियाती ही थी। अभी तक कोई रब्त ज़ब्त न हुई थी। परन्तु अचानक आये इस खतरे ने दोनों के कान खड़े कर दिए थे। दोनों को ही लगभग किसी अनिष्ट की आशंका थी ...
इससे पहले की कबीर कुछ समझ पाता, प्लास्टिक की टोकरी में बड़े नरम नरम, स्वादिष्ट हरे पत्ते डाल दिए गए। कबीर टूट पड़ा खाने के लिए। उसने अपने जीवन में कभी ऐसा स्वादिष्ट नाश्ता नहीं किया था... अब्दुल ने खुद ये पत्ते उसके लिए चुने थे। देह से भले अब्दुल आदमी और कबीर बकरी का बच्चा था, मगर दोनों की जान एक थी। अब्दुल जहाँ जाता, कबीरा साथ साथ होता। मदरसे से न जाने कितनी बार भगाया गया दोनों को। कबीर की यही तो दो दुनिया थी। एक माँ दुल्लर और दूसरा दोस्त अब्दुल।
"मुबारक हो मुबारक हो" की आवाज जोर पकड़ते जा रही थी, दुल्लर और दुलदुल शेख समझ चुके थे की आज क़यामत है। दुल्लर का तज़ुर्बा ज्यादा न था, पर शेखू ने बताया कि तुमको चिन्ता करने की ज़रुरत नहीं है, तुम तो दूध भी देती हो, और कबीर अभी छोटा है... तुम दोनों की जान शायद बच जाए, मुझे ही ले जायेंगे शायद... कहते कहते शेखू रो पड़ा। दुल्लर को कुछ न सूझता... समझाए भी तो कैसे। फिर भी बोली -" हो सकता है ये जिबह वाली मुबारक न हो, आप नाहक ही डर रहे हो शेख जी।" शेखू ने क्षुब्ध नेत्रों से देखा और मिमियाते हुए कहा - "अच्छी और मनहूस मुबारकेँ बदल बदल के आती हैं। पिछली वाली "मुबारक" में किसी को हालाक् नहीं किया था... मसलन वो क़त्ल वाली मनहूस मुबारक आज ही है।" शेख जी ने अपनी सारी बकरे की बुद्धि लगाकर गणना कर ली थी...उनके सामने मौत नाच रही थी, समझाना व्यर्थ था।
तभी अब्दुल और उसके अब्बा, चचा सब आये, शेख जी को ले गए... शेखू पूरी शक्ति से चिल्लाता रहा, दूहाई देता रहा, मगर "मुबारक हो मुबारक हो" में उसका चिल्लाना दबता गया। दुल्लर का ह्रदय मानों किसी गहरे कुएं में गिर गया हो, कबीर को अपने चारों पैरों के बीच छुपा लेना चाहती थी, मगर कबीर खाने में मस्त, छिटक कर दूसरी तरफ चला गया। दुल्लर ने निश्चय कर लिया था... कबीर का अंजाम दानिश जैसा न होने देगी। आज चाहे जो हो जाये।
अभी कबीर खा ही रहा था कि अब्दुल आ गया, दुल्लर का मन आशंका से भर उठा। कबीर का मन भी बाहर घूमने का हो ही रहा था... मगर माँ ने जोर की डांट लगायी... "खबरदार जो आज कही हिला भी तो"। कबीर धर्म संकट में, एक तरफ मित्र के साथ घूमने फिरने का आनंद, दूसरी तरफ अम्मी का कोप। मां को समझाया - "मुझे कुछ न होगा माँ, शेखू अंकल कह रहे थे की अभी तो मैं बच्चा हूँ, और फिर अब्दुल तो मेरा दोस्त है... वो खुद कुर्बान हो जायेगा मगर मुझे खरोच तक न आने देगा। सच्चा यार है वो मेरा..."
दुल्लर ने लाख अनुनय किया, कबीर न माना,चल दिया ख़ुशी ख़ुशी। अब्दुल आगे चलता, कबीर पीछे पीछे। कुछ दूर चलने पर कबीर को जरा आश्चर्य हुआ। आज अब्दुल ने मेरी रस्सी न खोली? क्यों भला? रोज तो मेरे साथ पास वाले बाड़े में खेलता था आज ये मुझे मस्जिद के पीछे क्यों लिए जाता है। इसी ताने बाने में कबीर मस्जिद के पिछवाड़े पहुँच गया। फर्श पर पड़ी एक निजीव पड़ी आकृति को पहचानते हुए " ये क्या, ये तो शेखू का मूड़ा है... तो क्या शेख जी !!!! "मुबारक हो मुबारक हो" की आवाज फिर कान में पड़ी... कबीर समझ गया... माँ क्यों इस आवाज से इतना डर रही थी..." मगर शेखू तो कहता था मैं अभी बच्चा .... " कबीर और कुछ सोचता इसके पहले ही अब्दुल के अब्बा ने हाँथ से छुरी पे धार देते हुए कहा " ये लो बेटे अब्दुल, आज तुम्हारे तालीम की एक और कड़ी पूरी हुई जाती है... आपके सबसे अजीज़ यार की कुर्बानी... और क्या चाहिए परवरदिगार को" ... कबीर आगे न सुन सका... बहरा हो गया था... प्राण ले भी रहा है तो वो दोस्त जिसपर सबसे ज्यादा एतबार था!
अब्दुल ने कबीर को लकड़ी के लंबर पे पटक के घुटनों से दबा दिया... एक साल के बकरे में जान ही कितनी होती है ...अब्बा ने धीरे धीरे छुरी चलाई, कबीर धीरे धीरे मारने लगा... मरते हुए कानों में अरबी के कुछ रहस्यम शब्द और फिर वही "मुबारक हो मुबारक हो" गूंजते गूंजते बंद हो गए... ह्रदय अब भी धड़क रहा था... धक् धक् धो, धक् धक् धो ... मानो "मुबारक हो, मुबारक हो" कह रहा हो।
मुबारक हो
उजड्ड
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