Monday, May 30, 2016

अधपढ़ भैंस


आमतौर पे भैंस दूहने में खतरा कम होता है। भैंस दूहने में शक्ति ज्यादा लगती है पर लात पड़ने का डर नहीं रहता। गाय कितनी भी शुद्ध/सीधी हो, दुहते समय सतर्क रहना पड़ता है। यह मेरा व्यतिगत अनुभव है। हमारे यहाँ जब भैंस भी अपवाद स्वरुप लात चला दे तो दुग्ध उत्पादक बंधू कहते हैं की - ई भईंसिया पढ़ लेहले हव। अर्थात भैस पढ़ लिख कर आउट ऑफ़ दी बॉक्स सोचने लगी है।

पिछले दिनों दिल्ली में कुछ अफ़्रीकी छात्रों की कुटम्मस हुई... गलत हुआ। हमारे लौंडे भी मारे जाते है ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, अमेरिका में तो कलेजा फटता है। इसकी निंदा करनी चाहिए और समय मिले तो रोकथाम भी होनी चाहिए। हिंसाबात नहीं होनी चाहिए... बापू जी कहे रहिन।

इसपर कुछ साम्यवादी विद्वानो ने इस घटना को आड़े हांथो ले लिया।
 बोले ये हमारे समाज का खोखलापन है। अमेरिका यूरोप ऑस्ट्रेलिया छोडो, हम भारतीय सबसे बड़े रेसिस्ट/ रंगभेदी हैं। जिसे देखो गोरी बहू/ बीवी चाहिए। काले आदमी को कारियवा, कल्लू, कलूटा आदि विशेषण दिए जाते हैं। दक्खिन भारतीय लोगों को हेय दृष्टि से देखना इत्यादि था साम्यवादी विद्वानों के हाँथ में। और फिर विद्वानों ने "We India are racists" की तख्ती ठोंक ली अपने माथे पे।

मैं बोल्या ओ विद्वान् जी! उ देखो! केतना दूध भरा हुवा है तोहार थनवा में। जरा लात कम चलाओ तो दूह के तुम्हारा प्रेसर कम कै दें... कहीं आपकी विद्वता का कमजोर थन, रंगभेद रुपी अपराध बोध के दाब से फट न जाये।

भारत में काले और गोरे का भेद बहुत गहरा नहीं है... व्यक्तिगत है, संस्थागत नहीं। आजतक इस देश में आपने किसी व्यक्ति को अस्पताल, विद्यालय, नौकरी, पद आदि संस्थाओं के लिए सिर्फ इसलिए अस्वीकृत होते देखा क्योंकि उसका रंग काला है? क्या काले लोगों के लिए अलग रास्ते होते हैं आपके यहाँ? क्या उनकी थाली अलग, उनके रेस्तरां, उनकी शराब अलग होती है। क्या उनको मनुष्य मानने में भी आपके बहुसंख्य धर्म को संकोच है? नहीं न! जो भेद है वो व्यक्तिगत पसंद पर है... भाई मुझे नहीं पसंद कोई विशेष रंग... मेरी पसंद नापसंद मेरा अधिकार है मियां। हम कोई इंकलाबी किताब से थोड़े गाइड होते हैं। माय मेहरारू, माय च्वाइस। ओकर मनसेधू, ओकर च्वाइस।

ये सब तो पसंद का खेल है... कानून या नीति का नहीं।
आज जो आप रेसिज़्म/ रंगभेद पढ़ते हो न, ये यूरोपियन लोगों की नियमबद्ध, संस्थागत नीति रही है।
कालों से पशुओं से भी बुरा आचरण करना उनकी पॉलिसी का हिस्सा रहा है।
क्या भारत की आज या कभी भी ऐसी रंगभेदी नीति रही है?
आज अपने ही पापों को धोने के लिए यूरोपी इसके खिलाफ क़ानून बनाये बैठे हैं।
व्यक्तिगत रूप में आज भी वो कमोबेश वैसे ही हैं... और जो नहीं है वो और भी दुर्गति को प्राप्त हैं।
ये लोग क़ानून से समाज को हांकते हैं। इनका क़ानून जनता के बैडरूम तक घुसा हुआ है।
जब लोग बुरे हों तो क़ानून कठोर रखना पड़ता है। जब समाज में सुचेतन न हो तो उसे क़ानून से हांकना पड़ता है।

आपके यहाँ ऐसे क़ानून की आवश्यकता नहीं... क्योंकि आपके लोग रेसिस्ट नहीं हैं। जो छात्र पिटे हैं उनके साथ मेरी सहानुभूति है। परंतु मैंने इन अफ़्रीकी छात्रों का तांडव देखा है। आधी रात को ये बाइक लेकर ऐसे उड़ते हैं जैसे हमारे शांति दूत मोहर्रम और शबेबरात में शरीक होते हैं। पुलिस वालों को खदेड़ना, गाली बकना, गाड़ी पे कलाबाज़ी करना... ये सब। अब आप ये कह सकते हैं कि जिस रोड रेज का अधिकार सिर्फ मुस्लिम समाज को है वो ये अफ़्रीकी क्योंकर छीनना चाहते हैं? इसके लिए तो उन्हें ईमान की धार पे कटवाना न होगा!

हम भारतीय लोगों को बिलावजह अपने चेहरे पे उग आये मुहांसे को हटाने के लिए कीमोथेरेपी नहीं करानी चाहिए।
अतः हम अधपढ़ भैंस की तरह लात न चलाये... आपने ज्ञान की सुरभि बिना लात चलाये देते रहें...
रंगभेद का कम्बल मत ओढिये। बहुत गरम करता है... हम हिन्दुतानियों को सूट नहीं करता।

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