Sunday, December 22, 2013

काशीमय तेज

सलिल गंगा से निर्मित प्राण है यह |
प्राण भी तज दूं ||
शिव की भस्म से रक्षित भुजा यह |
प्राण भी हर लूं ||

दिवस की वेदि पर अँजुल उठाकर |
आचमन करता ||
विलगती संध्या को कर में पकड़ कर|
आरती करता ||

भू - अक्षुण्णता का बाण है, वह बाण भी |
धर लूं ||
पितामह के दिए उस शंख का |
कुछ नाद भी कर लूं ||

भारत रो रहा इतिहास के दुर्गम |
विवर्तन पर ||
माँ व्याकुल रही है आज तक लोचन में |
जल भरकर ||

प्रभु मैं आज वह  करुणा पुनः हिय - दग्ध ही
कर लूं
मिलाकर धर्म - नीति से अब संग्राम ही
कर लूं |

अरि का घमंडित सर, कण कण कर दूं
चूरण कर दूं ||
ज्वलित मर्णिकर्णिका तट पर, अरि शव का
तर्पण कर दूं ||

असि वारि लिए कमंडल में, सुरसरि का अभ्यर्थन 
कर लूं ||
मैं ज्ञानमयी मैं तेजमयी, मस्तक वेदित , विकसित 
कर दूं ||




 - नीरज पाण्डेय

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