ना हम मिलते कभी शायद कहीं अच्छा ही होता,
ना ये उलझन ही होती, ना कोई परवाह होता||
मोहब्बत दिल में थी दिल में ही रह जाती तड़पती,
न तुम रुसवा ही होती, ना इतना मैं कभी बेबाक होता|
जाएँ कहाँ इस मोड़ से आगे निकलकर,
देखें ही क्या बीते हुए कल में पलटकर |
ना तुम धड़कन पकड़ती, मैं नहीं तड़पन परखता,
ना हम मिलते कभी शायद कहीं अच्छा ही होता,
ना ये उलझन ही होती, ना कोई परवाह होता||
उतर जायेगी शायद ये नशे की ज़र्द फिर भी,
गुज़र जाएँगी ये बाते भी लम्हों में सरकती|
यही होना है बाकी वक़्त मरहम जल्द रखता,
ना हम मिलते कभी शायद कहीं अच्छा ही होता,
ना ये उलझन ही होती, ना कोई परवाह होता||
-- नीरजः
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