Friday, November 7, 2025

 ना हम मिलते कभी शायद कहीं अच्छा ही होता,

ना ये उलझन ही होती, ना कोई परवाह होता||

मोहब्बत दिल में थी दिल में ही रह जाती तड़पती,

तुम रुसवा ही होती, ना इतना मैं कभी बेबाक होता|


जाएँ कहाँ इस मोड़ से आगे निकलकर,

देखें ही क्या बीते हुए कल में पलटकर |

ना तुम धड़कन पकड़ती, मैं नहीं तड़पन परखता,

ना हम मिलते कभी शायद कहीं अच्छा ही होता,

ना ये उलझन ही होती, ना कोई परवाह होता||


उतर जायेगी शायद येशे की ज़र्द फिर भी,

गुज़र जाएँगी ये बाते भी लम्हों में सरकती|

यही होना है बाकी वक़्त मरहम जल्द रखता,

ना हम मिलते कभी शायद कहीं अच्छा ही होता,

ना ये उलझन ही होती, ना कोई परवाह होता||


-- नीरजः

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