"Please use standard paper, recommended by us, to cover your son's books..."मेरे बेटे की टीचर ये शब्द कान में पड़े और धकेल दिया मुझे वर्ष १९८६-८७ में ... लडखडाती मगर ढंग से संजोयी हुई यादों के बीच ...
जुड़वे ममेरे भाई (कक्कू और गुड्डू भैया), मेरे अग्रज और मैं, हमारे सरकारी मकान के पार्कनुमा मैदान खेल रहे थे| सरकारी घर की संरचना जैसी की होती है ... हमारे और दाहिने वाले पडोसी का यह उभयनिष्ठ क्षेत्र था ... जो की घर में घुसने के रस्ते से लेकर हमारे खेलने तक की भूमिका बखूबी निभाता था| हमारा गाँव से बहुत निकट सम्बन्ध होने के कारण, पडोसी हमें देहाती और गंवार मानकर अपने convent going बच्चों को हमारी परछाई से भी दूर रखते थे ... डरते थे कही मिट्टी में खेलने की लत न लगा दें ये देहाती | हमें इस भेदभाव की जानकारी तो थी पर शायद इसे ठीक से समझते न थे ... कम से कम मैं नहीं समझता था | शाम के कोई ५:३० का समय था ... पडोसी के घर अंग्रेजी भाषा का सायंकालीन अखबार आता था | हाकर पेपर फेंक कर गया | सहसा गुड्डू भाई साहब ने कहा - बहन जी (मायावती नहीं ... हमारे स्कूल में अध्यापिका को बहन जी ही कहा करते थे) बोली थी की अपने कापी किताब पर अखबार चढ़ा के लाना है ...ककुवा (अपने से चंद मिनट छोटे कक्कू भैया को आदेशात्मक स्वर में) ... जो रे उ अखबार ली आव ... और स्वयं घर में गए और अपना स्कूल वाला झोला एक विशिष्ट मुद्रा में टांग कर (इसको लिखकर बताना थोडा कठिन है - इस मुद्रा में झोले की लम्बी वाली पट्टी को माथे पर लगाकर झोले को पीछे की ओर नितम्बों के सहारे लटका दिया जाता है ... झोले के भार के अनुसार ही टांगने वाले की गर्दन धीरे धीरे, बगुले जैसी, हिलती रहती है और पट्टी माथे को ऊपर की ओर सिकोड़ देती है जिससे की भौहें चढ़ जाती हैं) ले आये |
बैठ गयी चौकड़ी मैदान की घास पर ... उन दिनों हमें इस बार की सामान्य जानकारी नहीं थी की कैंची नमक यंत्र के प्रयोग से कागज़ को सलीके से काटा जा सकता है ... कक्कू गुड्डू भैया ने आव देखा न ताव ... चर्र पर्र्र करते हुए कुछ ही समय में किताबों पर अस्त व्यस्त तरीके से चढोना चढ़ गया ... पडोसी का अंग्रेजी वाला अख़बार क्षण भर में हमारी पुस्तकों की बली चढ़ गया ... मैं और मेरे अग्रज आश्चर्य मिश्रित शांत भाव से यह क्रांति देख रहे थे ...
दूर खड़ा पड़ोसी का चिकना सा बालक ये सारी घटना अपनी आँखों के सी सी टी वी कैमरे में रिकॉर्ड कर रहा था ... जैसे ही हमारी क्रांति पूरी हुई ... दौड़ता हुआ अन्दर गया और सारी फुटेज अपनी अम्मा (ताई) के सामने उल्टी (कै) कर दिया ...
अम्मा के खौफ से हम सभी भाइयों का कलेजा बैठता था ... मेरे जैसे मासूम बच्चे किसी तरह से भय जन्य लघु शंका रोकने में कामयाब होते थे | अम्मा ने आते ही पूरा पड़ोस सर पे उठा लिया ... अनपढ़, जाहिल , गंवार, देहाती न जाने क्या क्या कहा और क्या नहीं कहा | उम्र में बड़ी होने के कारण हमारी माता जी उनका जवाब न देती थी ... ऊपर से हमारी ही क्लास लेने लगीं ... ८०-९० के दशक में ऐसा बहुत होता था ... कुछ लफड़ा लोचा अगर बाहर मोहल्ले में हो जाये तो घर में न पता चले नहीं तो उल्टे मार पड़ती थी| चौतरफा छाये इस संकट से बस एक ही व्यक्ति थे जो बचा सकते थे ... हमारे बब्बा (दादा जी)... तभी गेट पर चिर परिचित आवाज आई ... लोलिया ... (बब्बा का दिया हुआ नाम).. प्रतिदिन की तरह मैं गेट पर भागा ...और बब्बा मुझे अपने अंक में भर के अपनी साइकिल पर बिठाने लगे (गेट से लेकर सामने वाली दीवार तक, जहाँ यह २६ इंच वाली कालजयी रेले साईकिल पार्क होती थी, का ४-५ मीटर का सफ़र मैं रोज़ यूँ ही बब्बा की साईकिल पर तय करता था). मैंने एक सांस में सारा वाकया कह सुनाया ... और अंत में अपना पक्ष मजबूत करने के लिए थोडा सा रुवांसा हो गया ... फिर क्या था ... ६५ वर्षीय इस मिलिट्री मैन के आगे सभी के पाँव उखाड़ गए ... बब्बा बस इतना बोले ... लड़िकन क खेल तोह लोगन के अंग्रेजी पढ़े से ढेर जरूरी ना हौ | तोहरे ना अटत हौ त रह जा दूसर अखबार लेहले आवत हई... लेकिन खबरदार से लड़िकन बच्चन के बिगड़लू लोगन ... बस हम चारो अब तक शेर हो चुके थे ...
हो सकता है के हम सुसंस्कृत ना रहे हों ... हो सकता है की कापियों पर अखबार चढ़ाना ठीक ना हो (संभवतः बच्चे हीरो हिरोइन की तस्वीर वाला अखबार ना चढाने पाए इसलिए)... पर क्या ब्राउन पेपर नहीं इस्तेमाल हो सकता? स्कूल वाले जो दे रहे हैं (और जिसके लिए बेतहाशा धन ले रहे हैं) क्या वही सही है? क्या प्लास्टिक कोटेड ये कवर प्रकृति ले लिहाज़ से ठीक हैं ... वो भी इस दाम पर ????
हर हर महादेव
-- उजड्ड बनारसी
-- उजड्ड बनारसी
No comments:
Post a Comment