Saturday, January 30, 2010

चले आओ

ये पंक्तिया पढने के बाद आपको ऐसा लग सकता है की ये अहमद फ़राज़ की "रंजिश ही सही ...." से प्रेरित हैं ...पर यकीन जानिए यह मात्र एक संयोग है। 

मौसम ये कुछ उदास है ... के तुम चले आओ
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ
डर लगता है - बेबाक हो...
डर लगता है - एक आग हो ...
मुझमे मेरे विश्वास को भरने चले आओ ...
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ

स्वातंत्र्य से ... अधीन से ...
संदेह से ... यकीन से ...
निर्वाद से ... निर्बाध से
आकंठ हो उन्माद से...
असम्बद्ध, अशब्द रिश्ता ये निभाने चले आओ।
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ

कल भोर से एक ठीस है
न ही पीर है न ही नीर है...
आकुल है मन, बोझिल है मन
बस मन ही मन की लकीर है|
विलगित ह्रदय के घाव ही भरने चले आओ
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ

मेरे मन में एक विद्रोह है...
पर कंठ में अवसाद है।
रोने की इसमें बात क्या ...
ये तो कर्म का ही प्रसाद है...
सुखी हुई धमनी में फिर बहने चले आओ ...
मिलने की तुमसे आस है ... के तुम चले आओ

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